मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

बीते कल की याद............

मेरा बचपन जमशेदपुर शहर के टाटानगर रेलवे स्‍टेशन से लगभग 1.5 कि.मी. दूर बागबेडा रेलवे कॉलोनी, लालबिल्डिंग में बीता। मेरी पैदाइश 3 मार्च, वर्ष 1978 से लेकर 1998-99 तक मैं यहां रेलवे के अतिक्रमित जगह पर बनाए गए घर में अपनी जिंदगी गुजारी है। बचपन से हमें पानी के लिए कुंए पर आश्रित रहना पडा है। कुएं की जिंदगी बहुत ही सुखद रही है। कितना अदभुत एहसास होता है जब रस्‍सी लगे बाल्‍टी को नीचे डाला और कुछ देर की मेहनत के बाद एक भरी बाल्‍टी पानी आपके हाथों में। पानी के लिए दूसरे अन्‍य विकल्‍प यथा हैंडपम्‍प की तुलना में कुएं से पानी लेना बहुत ही आसान होता है।
कुएं से पानी निकालते समय हमेशा यही ध्‍यान में रहता था कि कुएं का पानी बचाना है ताकि गर्मियों में कोई दिक्‍कत नहीं हो। पानी बचाने की यही मानसिकता मेरी आज भी जेहन में कैद है। आज जबकि मैं सरकारी आवास में रह रहा हॅूं तथा आवास में नल के द्वारा पानी सप्‍लाई की जाती है। आज भी जब कभी मैं नहाने जाता हॅूं तो मैं बाल्‍टी में पानी भरकर अपने पुराने दिनों को याद करने लगता हॅूं जब एक एक बाल्‍टी पानी के लिए कितनी मशक्‍कत करनी पडती थी और पानी भरने के बाद उसका उपयोग करने से पहले कई बार सोचता था। आज भी मानसिकता मेरी उसी तरह की बनी हुई है तथा पानी की एक एक बूंद का उपयोग करने से पहले यह सोचना जरूर हॅूं कि इसका बेजा इस्‍तमाल तो नहीं हो रहा है।

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

मुक्ति-बंधन

लगभग 14 वर्षों के वनवास के बाद एक मां कमला देवी की कोख ने पहले संतान के रूप में अपने कुल-दीपक को जन्‍म दिया। पति श्री ओम प्रकाश राय सीआरपीएफ में कार्यरत थे तथा दो भाईयों में छोटे थे। पत्‍नी कम पढी लिखी थी तथा उत्‍तर प्रदेश के गाजीपुर जिला के रेवतीपुर गांव में रहती थी। बचपन से अपने पुत्र को उच्‍च शिक्षा देने तथा अच्‍छा मुकाम हासिल करने की ललक में उस पिता ने अपने कुल-दीपक जिसका नाम दीपक ही रखा था, उसे लगभग 4 वर्ष की ही अबोध उम्र में अपने बडे भाई श्री अरुण कुमार राय, जो कि जमशेदपुर स्थित टाटा स्‍टील की नौकरी कर रहे थे, उनके हाथों सुपुर्द कर दिया। उनके इस फैसले के पीछे काफी बडा बलिदान छिपा हुआ था। अपने कुल के चिराग को बेहतर शिक्षा देकर उसे अपने पैरों पर खडा करके अपने कुल का नाम रौशन करने की ललक ही थी जिसने मां की ममता और पिता के दुलार से वंचित करते हुए उसे यशोदा रूपी मां उर्मिला देवी की गोद में बाल्‍यावस्‍था में ही सौंप दिया। उस समय उर्मिला की अपनी तीन बेटियां ही थी। पुत्र के रूप में दीपक को पाकर वह धन्‍य धान्‍य से परिपूर्ण हो गई थी।
इधर एक देवकी रूपी मां कमला देवी पुत्र के विरह में इस इंतजार में अपना जीवन काट रही थी कि एक दिन उसका बेटा बडा आदमी बनकर वापस आएगा। उसके इंतजार में उसने अपने आंचल को ममतामयी स्‍नेह से समेटकर रखा था जिसे एक दिन वह अपने दीपक पर उधेड देने के इंतजार में थी वहीं दूसरी ओर यशोदा रूपी उर्मिला देवी एक पुत्र को पाकर गदगद थी, उसने अपने लाड प्‍यार में कोई कमीं कभी नहीं की। दीपक को कभी अपने माता-पिता की कमी नहीं खली। हालांकि कालांतर में उर्मिला की कुल पांच बेटियां और एक पुत्र भी हुए तथा कमला देवी को भी दो बेटियां हुईं मगर इसके बावजूद दीपक के प्रति उनका लगाव सबसे ज्‍यादा ही रहा। यही कारण था कि यशोदा की बांहों में कब दीपक बाल्‍यपन से यौवन की दहलीज पर खडा हो गया इसका किसी को आभास ही नहीं हुआ। इण्‍टर की पढाई सफलतापूर्वक पूरी करने के बाद उसका एडमिशन नागपुर के प्रियदर्शनी कॉलेज में हो गया और देखते ही देखते वह आई.टी. इंजीनियर बन चुका था तथा कुछ ही दिनों की भागदौड के बाद उसे पुणे के एक मल्‍टीनेशनल कम्‍पनी में बतौर साफटवेयर इंजीनिय‍र की नौकरी भी मिल गई। इसी बीच श्री अरुण कुमार राय तथा श्री ओम प्रकाश राय दोनों ही अपने-अपने संस्‍थानों से सेवानिवृत हो चुके थे।

अब सबकी आंखों में एक सुनहरा ख्‍वाब जग चुका था। बेटा अंतत: इंजीनियर बन चका था। कई सपनों को अब सच होना था। रंग बिरंगे ख्‍वाबों की दुनिया सज चुकी थी। दोनों माताएं ख्‍वाबों को अपने आंचल में समेटे कल्‍पनाशील दुनिया की सैर करने लगी थी तथा दोनों पिताओं का सीना फक्र से चौडा हो चुका था।  तभी अचानक 18 नवम्‍बर, 2011 को दोपहर 2 बजे दीपक के दोस्‍तों ने यह जानकारी दी की दीपक उनलोगों के साथ पूणे से गोवा घूमने आया था और गोवा के बाघा समन्‍दर तट पर नहाने के दौरान डूबकर उसकी मौत हो गई। दीपक अब इस दुनिया में नहीं रहा।

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मुक्ति-बंधन
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ओम के प्रकाश से
कमल के रज से
वनवास बीताकर आया था
एक अनमोल रत्‍न इस घर में ।।1।।

ममतामयी आंचल में
किलकोरी लेता बचपन
आज भी याद है मुझे
सर्द भरा वो तेरा बचपन
कुल-दीपक का जन्‍म हुआ था
कई आस लिए इस घर में
वनवास बीताकर आया था
एक अनमोल रतन इस घर में ।।2।।

कलेजे पर पत्‍थर रखकर
हमने छोडा था तुम्‍हारा दामन
तेरे ही उज्‍ज्‍वल भविष्‍य के लिए
बदल दिया था मैंने अपना आंचल
तूझको सौंप दिया था
खुद को कैद करके इस घर में
वनवास बीताकर आया था
एक अनमोल रतन इस घर में ।।3।।

तूझसे दूर रहकर भी मैंने
तेरा ही हरपल ध्‍यान किया
यशोदा की बांहों में भी मुझको
अपना ही घनश्‍याम दिखा
जीवन मैंने गुजार दिया था
तेरी यादों को समेटे इस घर में
वनवास बीताकर आया था
एक अनमोल रतन इस घर में ।।4।।

हमारी त्‍याग उनकी परवरिश से
तेरी मेहनत सबकी किस्‍मत से
बदल कर रख दी तुमने
इस कुल की तकदीर को
सफलता तेरी अपने साथ लाया था
कई खुशियां इस घर में
वनवास बीताकर आया था
एक अनमोल रतन इस घर में ।।5।।

पूरी हो चुकी थी उसकी
उज्‍ज्‍वल भविष्‍य की तलाश
अब टिकी थी उसपर
छोटों की आस-बडों की प्‍यास
बस अब साकार होना था
कई ख्‍वाबों को इस घर में
वनवास बीताकर आया था
एक अनमोल रतन इस घर में ।।6।।

दो कलेजे पत्‍थर बने
दो हृदय कुंठित हुए
राम की तरह आकर तू
सीता की तरह कहां चला गया
हे मेरे कुल के दीपक
क्‍यों मुक्ति-बंधन करके तू चला गया
वनवास बीताकर आया था
एक अनमोल रतन इस घर में ।।7।।

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देवकी रूपी मां कमला देवी के हृदय से निकलती अपने पुत्र-वियोग की व्‍यथा
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रविवार, 27 नवंबर 2011

सर्वश्रेष्‍ठ कार्मिक की उपलब्धि और उच्‍चस्‍तरीय अपेक्षाएं


विगत 26 नवम्‍बर, 2011 को प्रयोगशाला के स्‍थापना दिवस समारोह के शुभ अवसर पर मुझे इस प्रयोगशाला के सर्वश्रेष्‍ठ कार्मिक के पुरस्‍कार से नवाजा गया। मेरे लिए इस उपलब्धि को पाना वाकई एक अविस्‍मरणीय क्षण था। इस पुरस्‍कार की प्राप्ति में मेरे अनुभाग अधिकारी श्री राजेश कुमार सिंह रौशन जी का महत्‍वपूर्ण योगदान रहा। उनके उच्‍च कोटि के  दिशानिर्देश तथा भविष्‍यदर्शी विचारों का ही परिणाम रहा कि मैं इस पुरस्‍कार के काबिल बन पाया। आज मैं जो कुछ भी हॅूं तो सिर्फ उनके दिशानिर्देश तथा भविष्‍यदर्शी विचारों के परिणामस्‍वरूप ही।

मुझे याद है जब मैं वर्ष 2008 के सितम्‍बर माह में दुर्गापुर से स्‍थानांतरण के पश्‍चात इस प्रयोगशाला में अपना कार्यभार ग्रहण किया था, उस समय मेरी तैनाती प्रशासनिक सचिवालय में हुई थी। कुछ ही महीनों के बाद नवम्‍बर, 2011 में मेरी तैनाती इस प्रयोगशाला के बिल अनुभाग/स्‍थापना-4 अनुभाग में कर दी गयी थी जिनके अनुभाग अधिकारी श्री रौशन जी ही थे। मैं दुर्गापुर से इस प्रयोगशाला में हालांकि 2 वर्ष का अनुभव प्राप्‍त कर यहां आया था मगर प्रशासनिक कार्य के नाम पर मेरे पास किसी प्रकार का कोई कार्य अनुभव नहीं था। दुर्गापूर की प्रयोगशाला में मैं हिन्‍दी प्रकोष्‍ठ में तैनात रहा तथा हिन्‍दी प्रकोष्‍ठ के कार्य से संबंधित गतिविधियों में पूरी तरह से लिप्‍त रहा जबकि मैंने सहायक सामान्‍य के पद पर अपना पदभार ग्रहण किया था। 1 वर्ष हिन्‍दी प्रकोष्‍ठ में कार्य करने के बाद मेरी तैनाती दुर्गापूर के प्रशासनिक सचिवालय में कर दी गयी थी, जहां मेरे पद के अनुरूप मैं किसी प्रकार का कोई कार्य सीख ही नहीं पाया था। मैं एन एम एल जमशेदपुर खाली हाथ बिना किसी कार्य अनुभव के ही आया था। नवम्‍बर, 2011 को बिल अनुभाग में पदभार ग्रहण करने के बाद मुझे ग्रुप डी कार्मिकों से संबंधित वेतन बिल, ओवर टाइम पेमेंट बिल का कार्य सौंपा गया जिसे मैंने पूरी निष्‍ठापूर्वक संपादित किया। इस दौरान मुझे अपने सारे सीनियरों श्री एच एन सिंह, श्री अशोक सिंह, श्री अम्‍बर टिर्की, श्री के जी साइमन, श्री अनिल कुमार शर्मा तथा श्री नन्‍द लाल पासवान जी समेत अनुभाग अधिकारी श्री राजेश कुमार रौशन जी तथा श्री जी आर सोरेन का हर प्रकार से सहयोग प्राप्‍त हुआ।
अगस्‍त 2009 में अचानक ही मुझे वैज्ञानिकों, तकनीकी अधिकारियों तथा सामान्‍य संवर्ग अधिकारियों से संबंधित वेतन बिल तथा आयकर से संबंधित बिल का कार्य सौंपने संबंधी चर्चा प्रशासनिक अधिकारियों तथा अन्‍य अधिकारियों के बीच हुई तथा इससे संबंधित पूछताछ मुझसे भी की गई जिसे मैंने मना कर दिया था मगर मेरे अनुभाग अधिकारी श्री राजेश कुमार रौशन जी ही थे जिन्‍होंने मुझे दिमागी तौर पर इस कार्य के लिय तैयार करवाया। यह उन्‍हीं का व्‍यक्तिगत प्रयास था कि मैं इस कार्य के लिए मानसिक स्‍तर पर खुद को तैयार कर पाया और इसके लिए हामी भरी और फिर उस दिन से जो मैंने कार्य करना आरंभ किया वाकई आज तक मुझे किसी प्रकार की कोई समस्‍या नहीं आने दी गयी। मेरे सामने आने वाले किसी प्रकार की समस्‍या का समाधान मेरे अनुभाग अधिकारी श्री रौशन जी ने अपने स्‍तर पर की। आज मैं जो कुछ भी हूँ, जहॉं भी खडा हॅूं वह सिर्फ श्री रौशन जी का प्रोत्‍साहन का ही असर है।

मेरे अनुभाग अधिकारी श्री रौशन जी के दिशा निर्देशों और मार्ग दर्शन का ही परिणाम रहा जिससे कार्मिकों से संबंधित कई प्रकार की लाभकारी योजनाओं को एक टीम वर्क द्वारा अमली जामा पहनाया जा सका जिसमें ई मेल में वेतन पर्ची संबंधित कार्मिकों को उपलब्‍ध करवाया एक अहम उपलब्धि कही जा सकती है।

मैं अपने अनुभाग अधिकारी श्री रौशन जी के प्रति कृतज्ञता के पुष्‍प अर्पित करता हॅूं जिन्‍होंने मुझमें अदभ्‍य शक्ति का संचार भरा तथा मुझे मानसिक स्‍तर पर सुदृढ किया जिसके परिणामस्‍वरूप आज मैं किंचित मन से कार्यालय का कार्य कर पा रहा हॅूं। मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्‍वास है कि बीते कल की तरह आने वाले कल में भी मुझे उनका दिशा निर्देश तथा मार्ग दर्शन प्राप्‍त होता रहेगा और मैं अपने कार्यालयीन कार्य को समर्पित इच्‍छाशक्ति के भाव से कर पाने में सक्ष्‍म हो सकूंगा।

अंत में,
श्रेष्‍ठ कार्मिक का पुरस्‍कार मिलना वाकई मेरे लिए एक गर्व की बात है मगर मैं जानता हॅूं कि इससे लोगों में मेरे प्रति उच्‍च स्‍तर की अपेक्षाएं होंगी, मैं विश्‍वास दिलाना चाहता हॅूं कि मैं बीते कल ही तरह आने वाले कल में भी पूरी तरह ईमानदारी तथा कर्तव्‍यनिष्‍ठा का भाव लेकर कार्य करूंगा तथा बिना किसी द्वेष व भेदभाव के समर्पित ईच्‍छाशक्ति से अपने कार्य को सम्‍पादित करूंगा।

एक बार फिर से मैं अपने अनुभाग अधिकारी श्री रौशन जी को इस आशा के साथ आभार प्रकट करता हॅूं कि भविष्‍य में उनका सानिध्‍य और मार्ग दर्शन मुझे यथावत मिलता रहेगा।

शनिवार, 26 नवंबर 2011

जीवन मृत्यु : एक कटु सत्य

दिनांक 24 नवम्‍बर की रात 11 बजे के करीब मैं जमशेदपुर वापस आया हॅूं। बीता एक सप्‍ताह मेरे जीवन का न भूलने वाला समय रहा।  इस दौरान वह सब कुछ हुआ जिसकी कल्‍पना मैंने कभी नहीं की थी।

दिनांक 18 नवम्‍बर के दोपहर 3 बजे के करीब मुझे मेरे ससुराल वालों की तरफ से यह जानकारी दी गयी कि मेरा बडा साला दीपक जो कि वर्तमान में पुणा के किसी मल्‍टीनेशनल कम्‍पनी में साफ्टवेयर इंजीनियर के पद पर कार्यरत था, वह गोवा में दुर्घटनाग्रस्‍त हो गया है तथा आईसीयू में एडमिट है। मैं तुरंत ही बिष्‍टुपूर स्थित अपने ससुराल पहुंचा तो मुझे विस्‍तार से जानकारी दी गयी कि दीपक तथा उसके कई अन्‍य पुराने साथी संगी अलग-अलग जगहों से मिलने जुलने के लिए गोवा गए थे जहां समंदर में नहाने के दौरान हादसा हुआ और वह आईसीयू में गंभीर अवस्‍था में एडमिट हैा 

यह जानकारी गोवा से उसके दोस्‍तों ने ही फोन द्वारा मेरे ससुराल में दी गयी थी। अचानक हुए इस अप्रिय वारदात ने मेरे ससुराल के लोगों को मानसिक आघात पहुंचा दिया था। आनन फानन में कोलकाता से मुंबई होते हुए गोवा के हवाई मार्ग का टिकट कटाया गया तथा रात के 1 बजे मैं अपने ससुर जी तथा छोटा साला के साथ सडक मार्ग से कोलकाता के लिए निकला तथा सुबह 7.30 बजे के करीब कोलकाता एयर पोर्ट हमलोग पहुंचे। वहां से हवाई मार्ग द्वारा हमलोग गोवा के लिए निकले। दोपहर के करीब 2 बजे हमलोग गोवा एयरपोर्ट के बाहर थे। वहां पहले से दीपक के कुछ दोस्‍त मौजूद थे। हमें देखते ही उनलोगों ने एक गाडी हायर की तथा हमलोगों से कहा कि चलिए पहले होटल चलते हैं आपलोग फ्रेश हो जाईए। इस बात पर मैं दीपक के एक दोस्‍त रत्‍नेश को साइड ले गया तथा उससे कहा कि क्‍या बात करते हो हमारे फ्रेश होने की चिंता मत करो पहले दीपक जिस अस्‍पताल में एडमिट है वहां ले चलो। मेरे इस बात पर रत्‍नेश मुझसे चिपककर रोने लगा और उसकी बंद जुबान ने लगभग सबकुछ बयां कर दिया कि दीपक अब इस दुनिया में नहीं रहा। अचानक मेरी निगाहों के सामने अंधकार सा छा गया। मेरी सांसे कुंद हो गई। मुझे समझ में नहीं आ रहा था मैं क्‍या करूँ। मेरे साथ मेरे ससुर जी और छोटा साला था। मैं चाहकर भी फूट फूटकर रो नहीं पाया। मैं खामोशी की चादर ओढकर गाडी में बैठ गया। लगभग 45 मिनट के बाद हमलोग गोवा के किसी होटल के अंदर थे। इस दौरान मुझे विस्‍तार से जानकारी देते हुए बताया गया कि दीपक 18 नवम्‍बर की सुबह की गोवा पहुंचा था और फिर सुबह नाश्‍ता करने के बाद सभी दोस्‍त बाघा बीच पर समंदर के पानी के साथ खेलने पहुंच गए। 10.30 बजे का लगभग समय रहा होगा। कुछ ही मिनटों के बाद पानी की लहर आयी और अपने साथ वापस जाते वक्‍त दीपक और उसके पांच अन्‍य दूसरे दोस्‍तों को भी घसीट ले गई। किनारे पर खडे कोस्‍ट गार्ड के जवान मोटर वोट लेकर मदद को गए भी और कुछ ही मिनटों की मेहनत के बाद सारे के सारे लोगों को वापस किनारे पर ले आए मगर इसी दौरान दीपक को बचाया नहीं जा सका। दीपके के मुंह तथा नाक में समंदर का रेत भर गया था काफी कोशिश करने के बावजूद उसे बचाया नहीं जा सका। आनन फानन में उसे स्‍थानीय समीप के नर्सिंग होम में भी ले जाया गया मगर वह तो पहले ही ..........................

दीपक जो कि लगभग दो वर्ष पहले ही नागपुर के इंजीनियरिंग कॉलेज से अपनी डिग्री कमप्‍लीट कर पुणा के एक मल्‍टीनेशनल कम्‍पनी में बतौर साफ्टवेयर इंजीनि‍यर के पद पर तैनात हुआ था। महज 23 वर्ष का युवा अपने कांधे पर अपने परिवार के कई सपनों को हकीकत में अमली जामा पहलाने की कोशिश करने में जुटा ही था कि यह घटना घटित हो गयी।

दीपक से मैं व्‍यक्तिगत रूप से काफी नजदीक रहा था। अक्‍सर ही वह मुझे और मैं उसे फोन करता तथा हमारी अक्‍सर नेट चार्टिंग से बातें भी हुआ करती थी। न जाने ईश्‍वर ने उसे क्‍यों काल के गाल में समा दिया। मैं जीवन पर्यन्‍त उसे भूला नहीं पाउंगा।

सचमुच हमारे हाथों में तो कुछ भी नहीं हमलोग तो महज कठ पुतली भर हैं हमें नचाने वाला तो कोई और उपर बैठा है जिसके हाथों में हमारी बागडोर थमी हुई है।

सागर की लहरें
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सागर की लहरों ने
छीन लिया जीवन
साथी-संगी छूट गए
सपने कई टूट गए
सागर की लहरों ने
छीन लिया जीवन ।।1।।

सागर के किनारों पर
बिखरे पडे मोतियों के बीच
एक कोख सूनी रह गई
एक मांग खाली ही रह गई
सागर की लहरों ने
छीन लिया जीवन ।।2।।

सागर की लौटती धाराओं में
जीवन भर का अब इंतजार
मां की सूनी आंखों को
बहन की सूनी कलाइयों को
सागर की लहरों ने
छीन लिया जीवन ।।3।।

रेत के महल की तरह
सब कुछ धाराशाही हो गया
पापा के वो ख्‍वाब सारे
आंखों में ही संजोए रह गए
सागर की लहरों ने
छीन लिया जीवन ।।4।।

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ईश्‍वर दीपक की आत्‍मा को शांति प्रदान करे।


रविवार, 13 नवंबर 2011

सी एम ई आर आई, दुर्गापुर क्रिकेट टीम को बधाई


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एसएसबीएमटी 2007 का यादगार ग्रुप फोटो
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बीते दिनों नई दिल्‍ली में आयोजित हुए एसएसबीएमटी जोनल आउटडोर क्रिकेट टूर्नामेंट में सीएमईआरआई, दुर्गापुर की क्रिकेट टीम ने अभूतपूर्व प्रदर्शन करते हुए फाइनल टूर्नामेंट के लिए क्‍वालीफाइ्र कर लिया है। मेरे तरफ से पूरे क्रिकेट टीम तथा इससे जुडे प्रबंधक महोदय तथा सचिव महोदय को बहुत बहुत बधाई।

वर्तमान में एसएसबीएमटी टूर्नामेंट जिसका स्‍तर काफी उच्‍च कोटी का है ऐसे में फाइनल के लिए टीम का क्‍वालीफाई करना अपने आप में एक महत्‍वपूर्ण उपलब्धि है।

मुझे अच्‍छे से याद है कि वर्ष 2007 में जब मैं खुद इस क्रिकेट टीम को एक सदस्‍य बना था। कैसे उस समय प्रशासन के भर्ती अनुभाग के अनुभाग अधिकारी श्री सुप्रकाश हलदर जी ने एक अच्‍छी टीम बनाने के लिए क्‍या कुछ प्रयास किए थे। सुबह सुबह सबके घर के दरवाजे-दरवाजे जाकर उसे उठाकर क्रिकेट ग्राउंड पहुंचने के लिए प्रेरित करना। नेट पर अभ्‍यास के दौरान क्रिकेट से जुडी बारीकियों को समझाना। लीग मैच खेल रहे युवाओं के साथ मैच की व्‍यवस्था करना आदि। कार्यालयीन कार्य के साथ-साथ इस तरह के सत्र में भी युवाओं को प्रोत्‍साहित करने के साथ-साथ अपनी भी भागीदारी सुनिश्चित कराने के लिए वास्‍तव में श्री हलधर जी प्रशंसा के पात्र हैं।

बात जब सीएमईआरआई क्रिकेट की हो तो मेनुफैक्‍चरिंग टेक्‍नॉलाजी समूह के श्री देबाशीष दत्‍ता जी को कौन भूला सकता है। उन्‍हें मैदान पर देखकर ऐसा लगता है कि 49 वर्ष  का प्रौढ नहीं बल्कि 19 वर्ष को जोशीला नौजवाल  मैदान पर आ गया है । किसी भी प्रकार के क्रिकेट प्रैक्टिस हो या फिर मैच इससे पूर्व उनके द्वारा कराए जाने वाले वार्मअप को टीम के फिटनेश के लिहाज से नकारा नहीं जा सकता। चाहे वार्षिक खेलकूद कार्यक्रम के पूर्व लाईनिंग करने की बात हो या फिर वार्मअप कराने की बात श्री दत्‍ता जी का अभूतपूर्व योगदान इसमें रहा है। वाकर्इ श्री दत्‍ता जी प्रशंसा के पात्र हैं।

एक और उल्‍लेखनीय बात यह कि रोबोटिक्‍स और मेकाट्रोनिक्‍स प्रभाग के श्री राजकुमार मंडल जी, डिजाइन तथा डेवलपमेंट ऑफ मेकानिकल सिस्‍टम प्रभाग के श्री एस पाटकर जी, भर्ती अनुभाग के श्री शैलेन्‍द्र कुमार जी, प्रिंटिंग तथा पब्लिकेशन प्रभाग के श्री विनीत कुमार सैनी जी, माइक्रकोसिस्‍टम टेक्‍नोलॉजी लेबोरेटरी प्रभाग के श्री मान सिंह आजाद जी, प्रशासन के सामान्‍य शाखा के अनुभाग अधिकारी श्री प्रदयुम्‍न कुमार दास जी जैसे कई अन्‍य क्रिकेट के प्रति समर्पित युवा शक्ति का प्रादुर्भाव सीएमईआरआई दुर्गापूर में हो चुका है तथा इनको संगठित करने तथा इनमें समर्पित इच्‍छा शक्ति जगाने के लिए श्री सुप्रकाश हलधर जी तथा इन्‍हे फिट रखने के लिए अपना गुरुमंत्र देने के लिए श्री देबाशीष दत्‍ता जी जैसे सक्रिय कर्मठयोगी कार्मिक के परिणामस्‍वरूप ही आज यह दिन हमें नसीब हुआ है जिस पर मुझे आज फक्र महसूस हो रहा है।
मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्‍वास है कि यदि इसी तरह हमारी टीम आगे अपना योगदान करती रही तो निश्‍चय  ही एसएसबीएमटी का फाइनय टूर्नामेंट ट्राफी हमारे ही हाथों में होगा।

एक बार फिर से पूरे सीएमईआरआई क्रिकेट टीम तथा इससे जुडे हुए सभी सदस्‍यों को मेरे तरफ  से बधाई।

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

इंसानियत

हम अक्‍सर ही दूसरों को इंसानियत का पाठ पठाया करते हैं। ऐसे मौक कम ही होते हैं जब हम खुद ही इस पाठ को अपने उपर अमल में लाते हैं। इंसानियत अक्‍सर की कई मौकों पर तार-तार होती हैा कभी जानबूझकर कभी बिना जाने बूझे।

आज का दिन बहुत ही भयावह रहा। सुबह 06.30 बजे पत्‍नी ने आवाज देकर उठाया और बताया कि बेटे के स्‍कूल की तैयारी नहीं हो पायी है इसलिए ऑटो वाले को मना कर देती हॅूं आप खुद ही बेटे को स्‍कूल छोड दीजिएगा। मैं तैयार हो गया। कारण साफ था ऑटो वाला कुछ अधिक समय पहले ही घर से मेरे बेटे को ले जाता है क्‍योंकि उसे और भी बच्‍चों को उनके घरों से लेना पडता है जबकि मैं सीधे मात्र 10 मिनट में अपने घर से स्‍कूल पहुंच जाता हॅूं। अक्‍सर ही ऐसा वाकया होता है जिसके लिए मैं हमेशा ही मानसिक रूप से तैयार रहता हॅू।

मेरी पत्‍नी मेरे पुत्र को स्‍कूल के लिए तैयार कर रही थी तभी अचानक ही मेरे घर के बाहर कुछ तेज आवाज सुनाई दी। मैं बाहर निकला तो देखा मेरे पडोस के शर्मा जी मुझे ही पुकार रहे थे। बाहर निकलने पर उन्‍होंने मुझे सूचना दी कि उनके पडोस के दास जी की दुर्घटना रात्रि समय कार्यालय से आवास आने के समय बीच रास्‍ते में हो गयी है और रात के 12 बजे उनको एम जी एम अस्‍पताल में दाखिल कराया गया है। उन्‍होंने यह भी बताया कि कॉलोनी के ही लोग रात के लगभग 12.30 बजे दास जी के घर आए और उनकी पत्‍नी को यह जानकारी दी कि उनके पति का घर वापसी के क्रम में दुर्घटना हो गया है और पुलिस द्वारा उन्‍हें एम जी एम अस्‍पताल में एडमिट कराया गया है। चिंता की कोई बात नहीं है। सुबह होने पर स्थिति का जायजा लिया जाएगा। शर्मा जी ने आगे बताया कि उनकी वर्तमान स्थिति कैसी है यह उन्‍हें नहीं मालूम। इतना सुनना था कि मैंने उनसे कहा ठीक है मैं अपने बेटे को उसके स्‍कूल छोडकर वापस आता हॅूं फिर हमलोग एम जी एम अस्‍पताल जाएंगे।

जमशेदपुर स्थित एम जी एम अस्‍पताल एक मात्र सरकारी अस्‍पताल है। यहां की चिकित्‍सा व्‍यवस्‍था की स्थिति काफी जर्जर रहती है तथा अन्‍य अस्‍पतालों की तुलना में यहां की व्‍यवस्‍था काफी कमतर मानी जाती है।

आनन-फानन में मैं तैयार होकर अपने बेटे को स्‍कूल छोड आया और फिर जब वापस अपने कॉलोनी में आया तो देखा कि कॉलोनी के गेट के सामने ही मेरे पडोस के राय जी के बडे बेटे पंकज अपने कार के साथ एम जी एम अस्‍पताल जाने के लिए तैयार खडा था। उसने जिद की कि मैं और शर्मा जी उनके कार से ही एम जी एम अस्‍पताल जाएं। मौसम की बदमिजाजी देखकर हम दोनों ही उसके कार में बैठ गए और फिर कुछ ही देर बाद हम एम जी एम अस्‍पताल के अंदर थे।

वहां पहुंचने पर मैंने देखा ही हमसे पूर्व ही वहां हमारे ही कॉलोनी के दो सज्‍जन एस के भटटाचार्जी जी तथा बी के राउत्रे वहां मौजूद थे। हमें देखकर बहुत ही अजीब स्‍वर में उन्‍होंने कहा कि आइए देख लिजिए क्‍या हाल है यहां। हम लोग अंदर गए। ड्रेसिंग रूम के अंदर गए जहां दास जी को रखा गया था। अंदर दाखिल होते ही मेरी आंखें फटी की फटी रह गयी। ड्रेसिंग कक्ष के एक किनारे बडे ही विचित्र तरीके से नीचे फर्श पर एक शरीर खून से लथपथ फेंका हुआ था। आस पास उनके सर के काटे हुए बाल बेतरीब ढंग से फेंके हुए थे, खून हर तरफ पसरा पडा था, काफी गंदा, बदबू भरा उपर से बिना किसी चादर के फर्श के पर एक बेजान लाश की तरह शरीर फेंका हुआ प्रतीत हो रहा था। मैं काफी शंका कुशंका से ग्रसित होकर उस के समीप गया, मेरी नजर सिर्फ और सिर्फ उसके छाती पर थी। कुछ ही सेकेंड हुए होंगे कि मेरी आंखों में एक अजीब रौशनी घिर आई और मैं हर्षित होकर पीछे मुडा और कहने लगा दास जी तो अभी जिंदा हैं भाई। सबों ने एक स्‍वर में कहा अरे वाह। मगर इसके तुरंत बाद मैं गुस्‍से से आग बबूला होकर डॉक्‍टर के पास गया और उनसे कहने लगा ''क्‍या मजाक है जिंदा इंसान को भी भला ऐसे रखा जाता है क्‍या'' मेरे इतना कहने भर से वह झन्‍नाते हुए हमलोगों से कहने लगी ''क्‍या कह रहे हैं आज आपका पेशेंट रात के 12 बजे से यहां पडा है क्‍या आपको यह जानकारी नहीं दी गयी थी क्‍या आपका पेशेंट सीरीयश है इसके बावजूद आपलोग 7 घंटे के बाद यहां पहुंच रहे हैं, अब आपलोगों को होश आ रहा है, रात में तीन-तीन बार यह अपने बेड के उपर से नीचे गिर पडा है हमलोग आखिर क्‍या करते अंत में नीचे ही लिटा दिया है'' देखते हैं हम लोग और क्‍या कर सकते हैं।

इतना सुनना था कि मुझे अपनी गलती महसूस हुई। मगर मैं उस डॉक्‍टर को भला क्‍या बताया कि आखिर रात के 12.30 बजे जो सूचना दास जी के घर दी गयी उस सूचना में कहीं भी किसी प्रकार के इस तरह के भयावह दुर्घटना की कोई बात नहीं कही गयी थी। बल्कि स्‍पष्‍ट तौर पर उनकी पत्‍नी को यह जानकारी दी गयी थी कि उनके पति का दुर्घटना हुआ है और वे फिलहाल एमजीएम में एडमिट करा दिए गए है तथा चिंता की कोई बात नहीं है आप निश्चितंत रहें।

हमारे कार्यालय से जमशेदपुर के जाने माने टी एम एच, टिनप्‍लेट अस्‍पताल तथा टाटा मोटर्स अस्‍पताल के साथ चिकित्‍सा को लेकर टाइअप किया गया है। ऑथोराइजेशन लेटर के बेस पर हम अपना इलाज वहां करवा सकते हैं। आपातकालीन समय में तो किसी प्रकार के ऑथोराइजेशन लेटर की भी आवश्‍यकता नहीं पडती। यह जानकारी रहने के बावजूद रात भर हमारे कार्यालय के एक स्‍टॉफ को एम जी एम जैसे जर्जर चिकित्‍सा व्‍यवस्‍था वाले सरकारी अस्‍पताल में भगवान भ्‍रोसे छोड दिया जाना मुझे किसी भी प्रकार से समझ नहीं आ रहा था। मैं यह सोचने पर विवश था कि आखिर मैं उसी ऑफिस में काम कर रहा हॅूं जहां किसी भी कार्मिक की मौत पर बाकी सभी कार्मिक स्‍वैच्‍छा से अपने एक दिन का वेतन दान स्‍वरूप म़़तक की विधवा को देते हैं उसी ऑफिस के कार्मिक द्वारा यह जानते हुए भी कि हमारा एक स्‍टॉफ एम जी एम में रात 11.45 बजे से पडा है इसके बावजूद उसे न तो टी एम एच अथवा दूसरी किसी अच्‍छे अस्‍पताल में ले जाने का प्रयास किया जाता है और न ही सही वस्‍तुस्थिति की जानकारी उनकी पत्‍नी की रात में दी जाती है। मैं यह सोच नहीं पा रहा कि अंतत क्‍या कारण है कि मर जाने के बाद हम रुपए पैसे दान करने की बात करते हैं और जीवित आदमी को मौत के मुंह में जाने से बचाने का प्रयास भर भी नहीं किया जाता है। आखिर हम किस दिशा की ओर उन्‍मुख हो रहे हैं। क्‍या यही मानवता है ? क्‍या हमारी नैतिकता इतनी खोखली है, क्‍या हम दौडती भागती जिंदगी में अपने कर्तव्‍यों मानवहितों के प्रति इतनी लापरवाही करने लगे हैं ?

अंतत: शर्मा जी, राउत्रे जी, एस के भटटाचार्या तथा पंकज की सहायता से लिखित कार्रवाई करके दास जी को सुबह 8.30 के करीब टी एम एच लाया गया जहां उनका उपचार आरंभ हुआ है। उनके लगभग पूरे शरीर का एक्‍सरे कर लिया गया है। सीटी स्‍कैन करके डॉक्‍टर यह देखना चाह रहे हैं कि उनके शरीर के अंदरूनी भागों में चौट का असर कैसा है। सीटी स्‍कैन भी किया जा चुका है।

आज की स्थिति कल से कुछ बेहतर है। जैसा कि उनके सहकर्मी श्‍‍याम सुन्‍दर जी ने आज बताया  कि दास जी बोल रहे हैं तथा स्थिति कुछ ठीक लग रही है।

इतना कुछ होने के बाद फिर वही सवाल आखिर हम कहां जा रहे हैं मौत के बाद दान करने की परम्‍परा की शुरूआत तो अच्‍छी है मगर जीते जी हम आखिर क्‍यों एक दूसरे को संभालने का प्रयास भी नहीं कर पा रहे हैं।

दिनांक 25.09.2011 को सुबह 10 बजे के करीब मैं टी एम एच गया था और दास जी से मिला पता चला कि उनके सर में खून जम गया है तथा सर के अंदर हवा भी भरा हुआ है।

सोमवार, 15 अगस्त 2011

लोकतंत्र में अनशन

बहुत ही दुर्भाग्‍यपूर्ण है लोकतंत्र के शिखर लालकिला पर खडे होकर जनतांत्रिक प्रणाली के प्रधानमंत्री का कहना कि किसी प्रकार की मांग को मनाने के लिए अनशन या भूख हडताल का सहारा न लें। वो भी स्‍वतंत्रता दिवस के अवसर पर जिसके इतिहास में अनशन तथा भूख हडताल समाया हुआ हो। जनहित में भ्रष्‍टाचार को हटाने की मांग में किए जाने वाले अनशन को जगह तक नहीं दिया जाना एक तरह से लोकतंत्र को गला घोंटने का प्रयास किया गया है। शांतिपूर्वक तरीके से किए जा रहे जन आंदोलन को कूचलने का यह कुत्सित प्रयास बाबा साहेब आम्‍बेडकर के संविधान को एक तमाचा है।
वर्तमान सरकार अंग्रेजी हुकूमत से भी आगे निकल गई है। अंग्रेजी हुकूमत ने यदि इस तरह के फरमान सुनाए होते तो महात्‍मा गांधी के सत्‍याग्रह, नमक आंदोलन, नील खेती आंदोलन, भारत छोडो आंदोलन तथा अन्‍य दूसरे आंदोलन का क्‍या हस्र होता यह जगजाहिर है। आजादी मिलने के बावजूद यदि हम शांतिपूर्वक तरीके से अपनी बात सरकार के सामने नहीं रख पा रहे तो यह कैया लोकतंत्र है, यदि आमरण अनशन के हथियार को नेस्‍तनाबूत करने के सरकार के इस प्रकार के कदम जारी रहे तो फिर इस देश में एक बार फिर से भगत सिंह सरीखे क्रांतिकारी पैदा होने लगेंगे जो सरकार के कानों में बम और बारुद के धमाकों से अपनी आवाजे बुलंद करने को बाध्‍य हो जाएंगे।
सरकार के द्वारा जन आंदोलन को कूचलने के लिए किए जा रहे हर तरह के कुत्सित प्रयास लोगों में वैमनस्‍यता का भाव पैदा कर रही है और लोगों में इससे विद्रोह की भावना पैदा हो रही है। सरकार को लोगों की भावना की कद्र करनी चाहिए तथा लोकतांत्रिक प्रकिया में रहते हुए इसका सही समाधान निकालने का प्रयास करना चाहिए।
अनशन से जुडी कुछ बातें मुझे याद आ रही है। मेरे पिता टाटा स्‍टील की नौकरी में थे साथ ही कुछ घर किराए पर भी लगे थे। मगर बावजूद इसके मेरे घर में टीवी तक नहीं थी। उस समय रामायण दूरदर्शन पर दिखाए देता था और मैं अपने छोटे भाई बहनों के साथ पडोसी के घर के दरवाजे पर प्रत्‍येक रविवार को रामायण देखने के लिए खडा हो जाता था। पडोसी का जब मन आता तब अपने घर के दरवाजे को खोलता कभी सही समय पर तो कभी रामायण के आरंभ होने के काफी समय बाद। एक दिन तो हद ही हो गई जब हम लोग काफी देर तक उनके दरवाजे के बाहर खडे रहे मगर दरवाजा नहीं खुला बहुत देर बाद दरवाजा खुला और पडोस के अंकल ने यह कहते हुए दरवाजा पुन: बंद कर दिया कि चलो जाओ रामायण तो खत्‍म हो गया। यह सुनकर हमलोग बहुत ही मायूस होकर वापस घर आए। इसके फौरन बाद मैंने एक साहसिक निर्णय लिया और अपना फरमान अपनी मां को सुनाया कि अब जब तक हमारे घर में टीवी नहीं आएगा तब तक मैं कुछ नहीं खाउंगा। मेरी मां ने मुझे बहुत समझाया कि क्‍या करते हो मगर मैं नहीं माना वाकई मैं जिद में अड गया और दो दिनों के अंदर ही मेरे अनशन ने वो कर दिया जो पिछले 8 वर्षों में नही हुआ था। इस एक अनशन ने मेरे पिताजी को मेरी मांग मानने पर विवश कर दिया और मेरे घर टीवी अंतत: आ ही गया।
ठीक इसी तरह का एक एक दूसरा उदाहरण मेरी जिंदगी से जुडा हुआ रहा जिसका संबंध साइकिल से था। कुछ इसी तरह का अनशन पर बैठने के बाद ही मेरी साइकिल की मांग पूरी हो पाई थी।
शांतिपूर्वक तरीके से अपनी मांग को रखने के लिए अनशन एक जबरदस्‍त हथियार है जिसका लोकतांत्रित प्रणाली में अपना एक अहम रोल है। यदि इस तरह के प्रयास को किसी प्रकार से रोकने का प्रयास किया जाए तो यह विद्रोह का रूप अख्तियार कर लेगी।
अत: सरकार को चाहिए कि लोकतंत्र की रक्षा करते हुए अनशन के हथियार को नेस्‍तनाबूत करने का कुत्सित प्रयास करना बंद करे तथा साथ बैठकर इसका हल निकालने का प्रयास करें।

सोमवार, 18 जुलाई 2011

उम्‍मीद

गम की आंधी में उम्‍मीदों का
चिराग जलने दो आज
जिस बेइंतहा मोहब्‍बत में
हो चुका ये दिल बर्बाद
उस मासूम नजर पर
एतबार करने दो आज
गम की आंधी में उम्‍मीदों का
चिराग जलने दो आज

नजरें फेर कर हमसे
जो तडपता छोड गई थी
उस कातिल जिगर का
इंतजार करने दो आज
गम की आंधी में उम्‍मीदों का
चिराग जलने दो आज

जिसको पाने की आरजू में
छूटती गई जीवन की डोर
उस संगदिल मुस्‍कुराहट का
दीदार करने दो आज
गम की आंधी में उम्‍मीदों का
चिराग जलने दो आज

दम घुंटता जा रहा
इस बेदर्द जहां की वादियों में
फिर से एकबार अपनी मोहब्‍बत का
इकरार करने दो आज
गम की आंधी में उम्‍मीदों का
चिराग जलने दो आज

मधुशाला

जीवन के भाग दौड में

जब अस्त हो जाए सफर

पी लेना तू सब्र का प्याला

मत जाना प्यारे मधुशाला

मधुशाला है धैर्य विहीन संसार

जो पौरुष का नाश कर देता है

पुरुषार्थ जिससे विनाश हो जाता है

परमार्थ जिसका परित्याग कर देता है


मंजिल की राहों में जब

हर सफर थम जाए दो राहे पर आकर

पी लेना तू सब्र का प्याला

मत जाना प्यारे मधुशाला

मधुशाला के सोमरस में

डूबते ही तुम पाओगे

रिश्ते नातों की तकरार

कर्तव्य विहीन संसार

क्षणिक सुख की प्रत्याशा में

संसारिक दायित्यों को

भूलते ही तुम जाओगे

पी लेना तू सब्र का प्‍याला

मत जाना प्यारे मधुशाला

रविवार, 10 जुलाई 2011

आत्महत्या की तीसरी असफल कोशिश - 2001

वर्ष 2001 मेरी जिंदगी के लिए काफी उथल पुथल रहा। अपनी शादी के लिए मैंने काफी ना नुकर किया मगर मेरे बहनोई तथा अन्‍य रिश्‍तेदारों के मानसिक यंत्रणा के परिणामस्‍वरूप मैंने अंतत: अपनी शादी के लिए हां कर दी। मेरी शादी के लिए कई फोटो भी आ गए तथा लडकी देखने का सिलसिला आरंभ भी हो गया। मेरी यही शर्त थी कि लडकी देखने मैं कतई नहीं जाउंगा जिसे मेरे घरवालों ने मान लिया। अंतत: मेरा रिश्‍ता तय भी हो गया। घरवालो ने लडकी देखी और उन्‍हें पसंद आ गया।

इस सबके बीच मैं पूरी तरह से मानसिक अवसाद से गुजर रहा था। मैंने अपनी जिंदगी में उस सख्‍श को छोड किसी और की कल्‍पना कभी नहीं की थी मगर आज ऐ सब कुछ हो रहा था वो भी मेरी मर्जी के बाद ही। मैं पूरी तरह से व्‍याकुलता के हद से बाहर था।

इसी बीच वेलेंटाइन्‍स डे के दिन मैं चुपके से बिना लडकी वाले के परिवार के लोगों बताए उसके घर भी चला गया था हाथ में गुलाब का फूल लिए और फिर कुछ देर तक लडकी तथा उनके सारे बहनों से अच्‍छी खासी बातें भी की मगर इस सब के बावजूद मैं अंदर से खुद को बिखरा-बिखरा सा महसूस कर रहा था। मुझमें जीने की ललक खत्‍म सी होती जा रही थी। न जाने मुझे ऐसा क्‍यों लग रहा था कि मैं कुछ गलत कर रहा हॅूं।

इसी उधेडबुन में 20 मई, 2001 की रात मैं जबकि घर में अकेला था परिवार के बाकी सारे सदस्‍य गांव में पूजा देने गए हुए थे। मैंने अपनी बीती नई जिंदगी जो मेरे अनुसार वर्ष 1994 से आरंभ हुई थी को खंगाल डाला और अचानक ही मैंने यह फैसला ले लिया कि अब इस जिंदगी में मैं जी नहीं सकता। जिसकी मोहब्‍बत ने मुझे यह नई जिंदगी दी यदि वही आज मेरे साथ नहीं तो फिर मेरे लिए इस जिंदगी के कुछ भी मायने बाकी नहीं। यही सब कुछ सोचकर मैंने अंतत: फैसला कर लिया कि अब नहीं जीना इस जींदगी को और फिर मैंने रात को घर में खोजना आरंभ किया जिससे मैं अपनी जिंदगी को समाप्‍त कर सकूं। थोडी ही देर में मेरे हाथों में एसिड की बोतल थी जो दरअसल बाथरूम साफ करने के लिए लाई गयी थी। मैंने अपने आप को सयंमित करते हुए बोतल में रखे एसिड को एक स्‍टील के ग्‍लास में डाली और उसे अपने हाथों में लेकर अपने मुंह तक लाया फिर अचानक मेरे आंखों के सामने एक मोहक मुस्‍कान जिंदगी की आ गई। मेरे दिल में उसे एक बाद देख लेने उससे अंतिम बार मिलकर उससे कुछ बातें कर लेने का ख्‍याल घर आया। न चाहते हुए भी आज मैं अपने दिल के हाथों हार गया और फिर मैंने यह सोच लिया कि एक बार अंतिम बार उससे मिल लेता हूं, दिल की बातें कुछ कह लेता हॅूं फिर मौत को गले लगा लूंगा। ऐसा सोचकर मैंने उस ग्‍लास भरे एसिड को दुबारा एसिड की बोतल में डाल दिया। अचानक मेरी नजर गई तो देखा कि स्‍टील  के ग्‍लास के अंदर का रंग पूरी तरह बदरंग हो चुका था।

अगले ही दिन मैंने अपनी एक दीदी से अपनी उस जिंदगी से मिलाने का आग्रह किया तो वह मुझसे बोली कि अब क्‍यों मिलना चाहते हो, अब तो तुम्‍हारी शादी होने जा रही है। मैंने उससे अपने दिल की सारी बातें कह दी। इस पर उसने मुझे भरोसा देते हुए कहा कि मैं कोशिश करती हॅूं।

मगर अगले ही दिन मुझे उस दीदी ने बताया कि मेरी उस जिंदगी ने कहा कि वह नहीं मिलना चाहती है मुझसे, वह बोल रही थी कि अब क्‍यों मिलना चाहता है वो मुझसे।

इसके बाद मैं टूट कर बिखर गया और मुझमें हिम्‍मत नहीं रही मौत को गले लगाने की क्‍योंकि दिल कमबख्‍त आखिरी बार उससे मिलना चाहता था, एक अंतिम बार उसका करीब से दीदार करना चाहता था, दिल में दफन कुछ बातें उससे करना चाहता था। मगर शायद मेरे ईश्‍वर को यह मंजूर नहीं था।

आज भी जिंदा ही हॅूं। जिंदगी जी रहा हॅूं।

आत्महत्या की पहली असफल कोशिश - 1994

मुझे अच्‍छे से याद है वर्ष 1994 का वह साल था जबकि मैं के.एम.पी.एम. इण्‍टर कॉलेज के प्रथम वर्ष का छात्र था। वही पिताजी वाली साइकिल से लालबिल्डिंग के अपने घर से बिष्‍टुपुर स्थित कॉलेज जाना तथा वापस आना। कभी कभार पैदल ही स्‍टेशन जाकर वहां से बस पकडकर कॉलेज जाना तथा वापस आना। पढाई - लिखाई से संबंधित कभी कोई प्रश्‍न मेरे पिता ने मुझसे न तो बाल्‍यवस्‍था में पूछे थे और न ही कॉलेज लाइफ में। उन्‍हें कोई मतलब ही कभी नहीं रहा कि उनके बच्‍चे क्‍या-कहां-कब पढ रहे हैं, पढ भी रहें हैं कि नहीं। उनके लिए जिंदगी सामाजिक कार्य से लेकर घर के बगान तक सीमित रहती।

1994 के अगस्‍त महीने में मैंने आत्‍महत्‍या की पहली नाकाम कोशिश की थी। क्‍यों की थी आज तक मैंने यह बात किसी से शेयर नहीं की है। मगर अब लगता है कि अब इसे मैं अपने दिल के अंदर दबा कर और नहीं रख सकता। इसलिए आज बहुत दिनों के बाद काफी सोचने समझने के बाद इसके उपर से पर्दा उठाने जा रहा हॅूं।
मैंने बचपन से यही देखता आया कि किसी भी प्रकार की कोई समस्‍या होने पर उस समस्‍या के निराकरण के बदले मेरे पिताजी उस समस्‍या को लेकर किसी मेरी मां पर ही ताना कसने लगते थे तथा सभी प्रकार की समस्‍याओं को लेकर मेरी मां पर ही दोषारोपण करते थे। मेरे साथ भी वर्ष 1994 में लगभग यही हुआ। घटना वाले दिन किसी बात को लेकर मैंने अपने सबसे छोटे भाई को डांटा तथा उसकी पिटाई कर दी। इसके बाद वह मेरी शिकायत लेकर मेरे पिताजी के पास चला गया। मेरे पिताजी तुरंत इस बात को लेकर उसके सामने ही मुझे खरी खोटी सुनाने लगे तथा कहने लगे कि अभी मैं जिंदा हॅूं यदि यह कुछ गलत करता है तो आप मुझसे कहें आपको हाथ उठाने की डांटने की कोई आवश्‍यकता नहीं हैा यह बात मेरे दिल घर कर गई। मैंने अपने छोटे भाई को उसकी गलती के कारण डांटा था और थोडी पिटाई कर दी थी, क्‍या बडा भाई यह सब कुछ नहीं कर सकता मगर मुझे मेरे अधिकारों को सीमित कर दिया गया और मुझे ऐसा लगा कि मेरे छोटे भाई के सामने मुझे फटकार लगाकर मुझे जलील किया गया। यह सब कुछ मैं सहन नहीं कर पाया और मैंने तुरंत ही एक फैसला ले लिया। इस जिंदगी को छोडने का।

इसके बाद मैंने घर में रखे रेट प्‍वाइजन के चार पैकेट को लेकर अपने रूम में गया और सबके पैकेट को फाडकर अपने हथेली में लिया और फिर मेरे सामने जिंदगी और मौत की जंग जारी हो गयी। न जाने कैसे कैसे ख्‍यालात मेरे जेहन के आमने-सामने से आर-पार होते चले जा रहे थे। मैंने अचानक ही अपने हथेली को अपने मुंह के अंदर रख दिया। अंदर जाते ही मुझे अजीब सा स्‍वाद महसूस होने लगा तो फिर मैं तुरंत अपने घर के किचन के अंदर गया और वहां से सूखा दूध जो चाय बनाने के लिए घर में लाया जाता है, अमूल स्‍प्रे दो चम्‍मच लेकर अपने मुंह में डाला और फिर निगल लिया।

थोडी देर के बाद मैं इण्‍टर की टयूशन के लिए चला गया। लगभग दो घंटे बाद टयूशन से वापस आने के बाद मैं अपने रूम के बिस्‍तर पर लेट गया। तभी मेरा मित्र जो मेरे साथ टयूशन पढ रहा था वह भी मेरे रूम में आया और मुझसे पूछने लगा क्‍या बात है आज तुम्‍हारी तबीयत कुछ खराब लग रही था। कोई परेशानी तो नहीं। मैंने जवाब देते हुए उसे कहा - नहीं ऐसी कोई बात नहीं। फिर उसने जिद करते हुए कहा, - मुझसे कुछ मत छुपाओ, मैंने देखा आज तुम ठीक से टयूशन में नहीं थे। फिर मैंने उससे कहा - एक बात कहूं किसी से बताओगे तो नहीं, उसने कहा - नहीं, मैंने उससे कहा - मैं अब इस दुनियां से जा रहा हॅूं, यदि मुझसे कोई भूल हो गई हो तो मुझे माफ करना। मेरे इस बात पर वह मुझसे पूछा - क्‍या बात कह रहे हो मुझे कुछ बताओ भी, मैंने कहा - मैंने रेट प्‍वाइजन खा लिया है और अब मुझे ऐसा लग रहा है कि जल्‍द ही मैं इस दुनिया से दूसरी दुनिया की ओर जाने वाला हॅूं। मेरा इतना कहना था कि मेरा दोस्‍तु चिल्‍लाते हुए मेरे घर के उस ओर भागा जहां मेरी मां थी और कहने लगा - चाची सुमन ने जहर खा लिया है।

घर वाले सारे आवाक होकर मेरे रूम की और दौडे और मुझे अस्‍पताल ले जाने की कोशिश करने लगे मगर मैं किसी कीमत पर अस्‍पताल जाने को तैयार नहीं था तभी मेरे टयूशन के सर आ गए और मुझे डांट फटकार कर जबरदस्‍ती कर एक टेम्‍पो में बिठाया और अस्‍पताल भेजा। अस्‍पताल जाने समय मैं लगभग बेहोशी की सी अवस्‍था में था। मुझे थोडा बहुत याद आता है वह लम्‍हा जब वह टेम्‍पो रेलवे की क्रासिंग पर रोक दिया गया था क्‍योंकि ट्रेन आने वाली थी तभी मेरा दोस्‍त मनीष टेम्‍पो से उतरकर क्रासिंग वाले पहरी से मेरी जान बचाने के लिए क्रासिंग खोलने को कह रहा था। उसके बाद मुझे कुछ याद नहीं।

अस्‍पताल पहुंचने पर मेरे नाक के रास्‍ते से एक पाइप डाल दिया गया था तथा उसमें कुछ लिक्विड डालकर मुझे उल्‍टी करायी जाती रही।

लगभग दो दिनों तक अस्‍पताल के बिस्‍तर की शोभा बनकर मैं वापस घर चला आया मगर अपने साथ इस हकीकत को आज तक छुपाता फिरता रहा कि मैंने आखिर आत्‍महत्‍या की कोशिश की क्‍यों थी। मेरे पिताजी वो भी अंजान की ही तरह हर बार मुझसे पूछते रहे कि आखिर क्‍या बात है बेटा मगर मैंने आज तक उनसे यह बात नहीं बतायी। उस समय न तो मेरी जिंदगी में कोई लडकी थी जिसकी लिए मैं आत्‍महत्‍या जैसा कदम उठाने की सोचता।

आत्‍महत्‍या की असफल कोशिश ने मुझे जिंदगी से बेजार कर दिया था। इसके बाद जीवन जीने की कल्‍पना मात्र भी मेरे लिए एक सजा से कुछ कम नहीं थी, ठीक इसी समय मेरे दिल में जिंदगी बनकर एक शख्‍स ने अपनी दस्‍तक दी। जिसकी बदौलत मैं जिंदगी जीने को विवश हुआ सिर्फ यही सोचकर कि इसके साथ तो मैं दो खज में भी अपना जीवन गुजार सकता हॅूं मगर परिस्थितियां ऐसी हुई कि आज मैं यहां और वो न जाने कहां किस भीड में गुम हो चुकी है।

सबसे मजेदार बात तो यह कि जिसने मुझे जिंदगी से मोहब्‍बत कराया उसी को मैं अपनी मोहब्‍बत का फलसफां समझाने में नाकाम रहा।

गुरुवार, 23 जून 2011

कल और आज

आज 21 जून, 2011 हैा बीता कल 20 जून, 2011 था। आज ही के दिन अर्थात 20 जून, 2006 को मैंने दुर्गापूर में सरकारी कर्मचारी के रूप में कार्यभार ग्रहण किया था। एक सरकारी नौकरी जिसने मेरी जिंदगी ही पूरी तरह से बदल दी। क्‍या से क्‍या हो गया। 20 जून, 2006 से पहले के समय के बारे में कभी सोचता भी हूं तो सिहर जाता हॅूं। क्‍या जिंदगी थी।

सुबह 09.15 से 05.45 तक की ड़यूटी फिर 6.15 के करीब घर वापस आकर तैयार होकर रात 08 बजे से 01.30 बजे की दूसरी ड़यूटी को जाना फिर लगभग 2 बजे के करीब घर वापस आना। 3 से 4 बजे के करीब सुबह में सोना फिर सुबह 8.30 बजे उठकर पहली ड़यूटी की तैयारी में लग जाना। कभी कभी तो दूसरी ड़यूटी सुबह 2 बजे के बाद ही खत्‍म होती।

इतना भागदौड करने के बावजूद हाथों में महज 5500/- पांच हजार पांच सौ के करीब राशि का आना और इससे अपने छोटे से परिवार को चलाने के लिए गुत्‍थमगुत्‍थी करना।

वक्‍त बदला, मेरी मेहनत से ज्‍यादा मेरी किस्‍मत का हाथ रहा इसमें। 20 जून, 2006 को जब मैंने एक सरकारी कार्मिक के रूप में अपना कार्यभार संभाला तो उस समय मेरे हाथों में लगभग सबकुछ काटने के बाद 5000/- की राशि मिलने लगी। रहने का घर, पानी, बिजली और चिकित्‍सा सुविधा नि:शुल्‍क हो जाने के कारण 5000/- की राशि में मुझे सारा जहान नजर आने लगा। मैं खुद को दुनिया का सबसे अमीर आदमी मानने लगा।

वर्तमान में मैं जमशेदपुर वापस आ चुका हूँ। इस बीच मेरी पदोन्‍नति भी हो चुकी है। परिवार भी बढ चुका हूँ। अब मैं और मेरी पत्‍नी के साथ मेरे दो छोटे बच्‍चे भी हैं। जिन्‍दगी की गाडी चल रही है। बीच बीच में अवरोध आते रहते हैं मगर इससे कोई फर्क नहीं पडता। ईश्‍वर पर आस्‍था है और उस पर भरोसा है।

कल और आज के दरम्‍यान काफी कुछ बदला हुआ है। अगर कुछ नहीं बदला तो सिर्फ मेरी सोच। मैंने काफी तंग हालात में अपना बचपन बीताया है मैं उन हालातों में अपने बच्‍चों को नहीं देखना चाहता। यही कारण है कि आज लगभग 15000/- का वेतन होने के बावजूद मेरे पास महीने के अंत में एकाउंट राफ साफ रहता है। कई बार तो महीने के 15 तारीख के बाद ही अफरातफरी का माहौल बन जाता है। परंतु इसके बावजूद मुझे लगता है कि दुनिया का सबसे अमीर आदमी मैं ही हॅूं। पिछले ही दिनों जबकि मेरे बैंक एकाउंट में सिर्फ 72 रुपए बचे थे। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि अब 20 जून के बाद से 30 जून तक का सफर कैसे कटेगा। इसी उधेडबून में अपने बॉस से मैंने यह आग्रह किया कि ट़यूशन फी का बिल पेमेंट यदि कर दिया जाए तो अच्‍छा होगा और साथ ही मैंने अपने व्‍यक्तिगत परेशानी की बात भी उनसे कह दी। उन्‍होंने अपनी हामी भरी और मैं लग गया ट़यूशन फी के बिल को बनाने में तकरीबन 2 से 3 दिनों में ही बिल तैयार कर मैंने उस बिल का पेमेंट करा लिया। 20 तारीख को ही ट़यूश्‍न फी के मद में मुझे 6740/- रुपए प्राप्‍त हुए।

क्‍या से क्‍या बदल गया है बीत कल और आज में, कहां 2006 में मेरी पूरी सैलरी ही 5000/- के करीब होती थी और कहां आज मुझे बच्‍चे को पढाने के मद में 6740/- का भुगतान हो रहा है।

यह सब कुछ देखकर तो यही लगता है कि मैं जो कुछ इस ऑफिस को दे रहा हॅूं वो बहुत ही कम है मुझे दिए जा रहे वेतन की तुलना में मेरे द्वारा किया जा रहा काम बहुत ही कम है। कहां मैं रोजाना 13 से 14 घंटे काम करके 5500/- कमा पाता था और कहां आज मुझे तकरीबन 15000/- रुपए सैलरी मिलती है वो भी रोजना 8 घंटे के काम के बदले जबकि साप्‍ताहिक छुट़टी दो दिनों की है। ऐसे में मुझे हर पल ऐसा एहसास होता है कि मैं इस ऑफिस के साथ नाइंसाफी कर रहा हॅूं। मुझे और भी मेहनत करना चाहिए तथा अपना इफोर्ट और भी देना चाहिए। इस दिशा में मैं प्रयासरत्‍न भी हॅूं यही कारण है कि मैं न सिर्फ मुझे दिए गए कार्य को कर रहा हॅूं बल्कि नए नए काम में भी अपना योगदान देने की कोशिश करता रहता हॅूं।

दुर्गापूर कार्यालय के लगभग सभी सहयोगियों को मैं भुला नहीं सकता। सिर्फ 2 वर्ष और कुछ महीनों के अपने कार्यकाल में ही मेरी घनिष्‍ठता अनेक लोगों से हो चुकी थी जो आज तक कायम है और आशा ही नहीं पूर्ण विश्‍वाष है कि आने वाले कल को भी कायम ही रहेगी।

रविवार, 22 मई 2011

पहली मोहब्बत का इजहार

मोहब्बत का इजहार करना कितना कठिन होता है उपर से उस समय जब आपको यह मालूम न हो कि उसके दिल में आपके लिए क्‍या है।

वर्ष 1994 की बात है जब मैं इंटर का प्रथम वर्ष का छात्र था। अगस्‍त का महीना चल रहा था जबकि मैंने आत्‍महत्‍या की नाकाम कोशिश की थी वजह सिर्फ और सिर्फ घरेलू परेशानी थी। इस सदमे से उबरने के बाद मैं जिंदगी जीने की जद्दोजहद कर ही रहा था कि पडोस में रहने वाली एक शख्‍स ने मेरे दिल में एक नई जिंदगी के रूप में दस्‍तक दी। मैं मानसिक रूप से परेशानी की हालत में था, खुद को इस दुनिया के किसी कोने में रख पाने का हौसला बिलकुल ही खो चुका था। ठीक इसी समय मुझे लगा कि मुझे एक नई जिंदगी मिल गई। उसकी ओर मैं खींचा चला गया सिर्फ जिंदगी जीने की मजबूरी के कारण। 

मुझे ऐसा लगने लगा कि वही मेरी जिंदगी है और मैं उसे जिंदगी मानकर पुराने गम को भूलने की कोशिश करने लगा।

इस बात की खबर मेरे दोस्‍त प्रमोद पंडित को हो गई उसने मुझे अपनी मोहब्‍बत का इजहार उस शख्‍स से करने की बात कही मगर मैं इसके लिए तैयार नहीं हो रहा था किंतु मेरे उस दोस्‍त ने मुझमें शक्ति का संचार किया और परिणामस्‍वरूप मैं एक लम्‍बा चौडा पत्र जिसमें अपनी दिल की बातें कई शेरो शायरी के साथ लिखकर कुछ ही दिनों में उसे अपनी मोहब्‍बत का इजहार करने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो गया।

एक दिन जब वह टयूशन के लिए घर से निकली मैं दूसरे रास्‍ते से अपने हाथों में पत्र लेकर निकल पडा। थोडी ही देर के बाद हम दोनों आमने - सामने थे। मेरा दिल जोर-जोर से धडक रहा था। मेरी सांसें थम-थम कर चलने लगी थी। मेरे पांव इतने भारी हो गए थे कि जहां मैं खडा था वहां से एक कदम न तो आगे बढ पा रहा था और न एक कदम पीछे की ओर ले पा रहा था। इसी दौरान मैंने उसका नाम लेते हुए अपने हाथों मे रखे उस पत्र को उसकी ओर बढाकर कहा,
''एकटू ऐटाके पढे निबेन''
उसने मुस्‍कुराते हुए जवाब देते हुए कहा,
''केनो''
मैंने फिर से उससे कहा,
''एकटू पढे निबेन ना''
इस बार उसने बहुत ही विनम्र आवाज में कहा,
''देखून आमार टयूशन लेट होच्‍छे आमके जेते देन''
उसकी इस विनम्रता पर मैंने सहजता से कहा
''ठीक आच्‍छे''
और फिर हम दोनो के पांव दो विपरीत दिशा की ओर बढ गए।

मैं वापस घर आया और चुपचाप खामोशी से अपने बिस्‍तर पर लेट गया। थोडी देर के बाद मेरा दोस्‍त प्रमोद आया और मुझसे इजहारे मोहब्‍बत के बारे में पूछने लगा तो मैंने उसे विस्‍तार से बताया। इस पर उसने मुझे धीरज देते हुए कहा कि इसमें परेशानी की क्‍या बात है उसने तुम्‍हारे पत्र देने के दौरान न तो गुस्‍सा दिखाया और न ही तुमसे ऐसा नहीं करने संबंधी कोई बात कही। यदि उसके दिल में तुम्‍हारे लिए कोई जगह नहीं होता या फिर उसके दिल में कोई और लडका होता तो वह जरूर गुस्‍सा होती और तुमसे गुस्‍से में आकर कुछ जरूर कहती। मैं उसकी बातों से सहमत भी हुआ मगर.................।

कुछ ही दिनों बाद मेरे घर पडोस में रहने वाला एक छोटा लडका आया और मुझसे पूछा, ''सुमन भैया क्‍या आप आज बैडमिंटन खेलने नहीं जाएंगे''। उन दिनों सर्दी के मौसम में मैं आस पडोस के कुछ हमउम्र तथा छोटे लडकों के साथ शाम को बैडमिंटन खेला करता था। उस दिन मुझे घर से निकलने में देर हो चुकी थी तभी वह लडका मुझसे इससे सबंधित पूछने आया था। मैंने उससे कहा कि ''तुम चलो मैं थोडी ही देर में मैदान में पहुंचता हॅूं''।

कुछ ही देर बाद मैं अपना बैडमिंटन लेकर मैदान में पहुंचा तो मुझे मामला कुछ अजीब लगा, क्‍योंकि वहां मैदान के आस पास वह शख्‍स अपनी कुछ सहेलियों के साथ टहल रही थी। यह पहली बार था। मैं जैसे ही बैडमिंटन कोर्ट के पास पहुंचा, वह शख्‍स अपनी सहेलियों के साथ मेरे पास आई और उसने मुझसे कहा, ''.........हम आपको लाइक नहीं करते, आपके पास मेरा जो भी फोटो है मुझे वापस कर दीजिए'', अचानक हुए इस हमले पर मैं असहज रूप से उत्‍तर देते हुए कहा, ''मेरे पास जो फोटो है उसमें सिर्फ आप ही तो नहीं हैं''। मेरे इस जवाब पर उसकी सहेलियां बोलने लगीं, ''तो फिर और कौन लोग होगा उस फोटो में हम लोग होंगे''। मैंने फिर जवाब देते हुए कहा, ''नहीं आप लोग नहीं हैं''। और फिर कुछ देर खामोश रहने के बाद मैंने कहा, ''ठीक है, आज ही मैं वह फोटो वापस कर दूंगा'' इतना कहकर मैं वहां से अपने घर वापस आ गया।

जिस फोटो को वापस करने की बात मैंने कही थी वह एक ग्रुप फोटो थी, कुछ परिवार के सदस्‍यों की जिसमें मेरे पडोस में रहने वाली वह लडकी भी थी।

मैं घर वापस आया, बहुत रोया, बहुत रोया। मुझे ऐसा लगा जैसे मैंने अपने जीने का हक खो दिया है। मैंने तुरंत ही सारे के सारे डायरी के पन्‍ने जो उसकी यादों में मैंने लिखे थे, को फाडकर आग के हवाले कर दिया और फिर कुछ देर बाद उस फोटो को लेकर उसकी सहली के पास गया और फोटो वापस करने के बारे में बताया।

कुछ ही देर के बाद वह शख्‍स अपनी सहेली के साथ मेरे नजर के सामने थी। मैंने उसकी हाथों में फोटो रख दी। उस ग्रुप फोटो को देखकर वह जोर से हंसने लगी। न जाने मुझे ऐसा क्‍यों लगा कि यह मेरी मोहब्‍बत पर हंसी की जा रही है। मैं पलटकर वापस जाने ही वाला था कि अचानक मुझे याद आया कि उस फोटो का एक और टुकडा तो मेरे कॉलेज के आई.डी कार्ड के पीछे घुसा हुआ है। मैंने पलटे हुए अपने पॉकेट में रखे आई.डी कार्ड के पीछे से उस फोटो के टुकडे को निकाला और उस शख्‍स के हाथों में थमा दिया और वापस चल गया अपने उस वीरान घर की ओर। अब इस जहां में मेरा और कोई नहीं था सिर्फ और सिर्फ उदासी और गम के सिवा।

आज जबकि वर्ष 2011 का मई महीना चल रहा है, वर्ष 1998 के इसी मई महीने के 19 तारीख को वह शख्‍स अपने परिवार के साथ मेरे पडोस के घर को छोड कई किलोमीटर दूर रहने चली गई थी। आज भी हर एक दिन हर एक लम्‍हा जो मैंने उसकी यादों में बीताया है मुझे उसके साथ अपने पन की याद दिलाता है। वह जहां भी रहे खुशहाल रहे, अपने इष्‍ट से यही दुआ करता हॅूं।

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

आधुनिक स्‍वतंत्रता संग्राम

चुप बैठे, खामोश रहें

अब हमें ये गंवारा नहीं

समस्‍याओं को सुलझाने में

अब नेताओं का लेना सहारा नहीं

उमड पडी है जन शक्ति

अब अण्‍णा के मार्गदर्शन में


चुप बैठे, खामोश रहें

अब हमें ये गंवारा नहीं

जन लोकपाल विधेयक लाकर

अब भ्रष्‍टाचार को आगे बढाना नहीं

एकजुट हो गयी है जन शक्ति

अब अण्‍णा के मार्गदर्शन में


चुप बैठे, खामोश रहें

अब हमें ये गंवारा नहीं

गोरे अंग्रेजों से लडकर हमने

एक आजादी पायी है

काले अंग्रेजों से लडकर हमें

अब फिर से आजादी पानी है

संगठित हो गए हैं हिन्‍दुस्‍तानी

अब अण्‍णा के मार्गदर्शन में

जय हिन्‍द, जय भारत

अण्णा हजारे जी को मेरा शत-शत नमन

अंतत: हम जीत गए । जन शक्ति ने अपना खेल दिखा ही दिया ।
अण्‍णा जी एवं उनकी पूरी टीम को पूरी हिन्‍दुस्‍तान की जनता की तरफ से बधाई ।
पिछले कई वर्षों से ऐसा लग रहा था जैसे कोई नहीं जो आम आदमी की बात सुने, कोई नहीं जो आम आदमी की परेशानी को समझ सके। सारा हिन्‍दुस्‍तान त्राहिमाम त्राहिमाम कर रहा था मगर उपर बैठे लोगों के कानों में जूं तक नहीं रेंग रही थी। लोग खुद को बेबस-लाचार महसूस कर रहे थे। ऐसी परिस्थिति में अण्‍णा जी के आंदोलन ने वो कमाल कर दिया जैसे लगा सचमुच हम आजादी की दूसरी लडाई लड रहे हों ।
अदभुत वाकई अदभुत-अभूतपूर्व रहा। आम जनता की जीत हुई । अण्‍णा जी एवं उनकी पूरी टीम को इसके लिए बधाई। हमें आशा है न सिर्फ भ्रष्‍टाचार अपितु समाज में फैले सभी प्रकार की समस्‍याओं के निराकरण के लिए उनका मार्गदर्शन हमें मिलता रहेगा।

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

अन्‍ना हजारे और आधुनिक स्‍वतंत्रता संग्राम

पिछले तीन दिनों से अन्‍ना हजारे अनशन पर बैठे हुए हैं। उन्‍होंने पिछले तीन दिनों से कुछ भी खाया पीया नहीं है मगर इस दौरान हमारे देश के 120 करोड की आबादी के अधिकांश लोग अपना जीवन पूर्व की तरह ही जिए जा रहे हैं जिसमें मैं खुद भी शामिल हॅूं। पिछले तीन दिनों के दौरान जब भी कुछ खा पी रहा हॅूं मेरे जेहन के सामने एक चेहरा अकस्‍मात ही नजर आ रहा है वह फिर मैं अपने आप को धिक्‍कारने लगता हॅूं। मुझे आत्‍मग्‍लानि महसूस हो रही है। मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं वर्ष 1947 के पहले के समय में हॅूं और जबकि समूचा देश स्‍वतंत्रता संग्राम के लिए आंदोलनरत है मैं अंग्रेजों की वफादारी में अपना समय काट रहा हूँ। मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं अपने आप को देशहित के लिए जारी इस आंदोलन में किसी प्रकार शरीक करूँ।

मैं क्‍या करूँ, कहां जाएं, किस प्रकार अन्‍ना हजारे के समर्थन में अपने हाथ उठाउं, किसका-कहां विरोध करूँ। आज फिर से एक बार देश को भ्रष्‍टाचार की गुलामी से छुटकारा दिलाने के लिए एक और गांधी हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं मगर मैं खुद को विवश पा रहा हॅूं इस आंदोलन का हिस्‍सा नहीं बन पाने के कारण।

जन लोकपाल विधेयक को पारित कराने का प्रयास आने वाले भविष्‍य को सुरक्षित करने का प्रयास है इसे लेकर किए जा रहे आंदोलन को हालांकि देश भर में भारी समर्थन मिल रहा है मगर इस प्रयास में मैं अपना कोई हिस्‍सा नहीं दे पा रहा हॅूं इसके लिए मुझे आत्‍मग्‍लानि हो रही है।

देश डूब रहा है गर्त के अंधेरे में, देश को डुबाने वालों को इससे कोई मतलब नहीं कि जनता त्राहिमाम-त्राहिमाम करे या कुछ और यह सब कुछ देखकर तो यही लगता है कि अब देश को दूसरी आजादी की जरूरत है और मुझ जैसे युवा हाथ पर हाथ रखकर सिर्फ तमाश देख रहे हैं हमें भी अपने स्‍तर पर इस आंदोलन को सफल बनाने की दिशा में प्रयत्‍न करने की आवश्‍यकता हैा

जय हिन्‍द जय भारत ।

आखिर कब तक.........।

कब से सूरज अस्‍त होगा, कब ऐ जिन्‍दगी खतम होगी, कब ऐ सांसें जुदा होगी शरीर से, कब आखिर कब तुम्‍हारे पास होने का एहसास होना बंद होगा.........।

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

रिश्‍तों के मायने

मुझ जैसे कई लोग होंगे जो बेवकूफों की तरह रिश्‍तों के मायने तलाशते फिर रहे होंगे । पैदा होने से लेकर मरने तक हम कैद रहते हैं रिश्‍तों के भ्रम जाल में। मां-पिता, भाई-बहन, पत्‍नी-संतान से लेकर अनगिनत रिश्‍ते में हम दिन प्रतिदिन फंसते जाते हैं। कहीं हम दूसरों को बेवकूफ बनाते हैं तो कहीं हम दूसरों से बेवकूफ बनते हैं। लोग जाने अनजाने रिश्‍तों के भ्रम जाल में खुद को कैद करके रखते हैं।

इनकम टैक्‍स की उपयोगिता

वर्तमान परिस्थिति में जबकि समूचा हिन्‍दुस्‍तान भ्रष्‍टाचार से ग्रसित है पिछले कई महीनों से लगातार ही कभी मघु कोडा के लगभग 4000 करोड रुपए, कभी ए राजा के लगभग कई लाख करोड, कभी कलमाडी के कई हजार करोड मामले प्रकाश में आ रहे हैं, इन सबको देखते हुए लगता है इनकम टैक्‍स अर्थात आयकर देने वाले लोग पूरी तरह से बेवकूफ बन रहे हैं। सरकार द्वारा सभी प्रकार के टैक्‍स लेने का प्रयोजन इस पैसों को हिन्‍दुस्‍तान के गरीब आम जनता की भलाई के लिए कार्य करना है मगर यदि यही पैसा किसी एक दो आदमी की बपौती बनने लगे तो फिर टैक्‍स देने वाले लोग तो अपने आपको ठगा हुआ सा महसूस करेंगे ही। कई बार अखबारों में यही विज्ञापन दिया जाता है कि आप कोई भी समान खरीदें आप वैट आदि टैक्‍स देकर मूल बिल लें ताकि टैक्‍स द्वारा जमा किए गए पैसे आम जनता की भलाई में खर्च किए जा सके। मगर वास्‍तविकता इससे कितनी दूर होती जा रही है छोटे से छोटे काम से लेकर बडे से बडे काम में घपले से घपले ही किए जा रहे हैं। सरकारी तंत्र का भी यही मानना है कि सरकार द्वारा भेजी जा रही राशि जो गरीबों के हित में खर्च की जानी है उसका सिर्फ 10 प्रतिशत ही सदुपयोग हो रहा है, इसका मतलब यही कि बाकी 90 प्रतिशत कमीशन आदि के रूप में भ्रष्‍टाचारियों के जेब में जा रही हैा
एक इनकम टैक्‍स देने वाले भारतीय की तो बात ही निराली है, एक तो वह अपने पूरे वेतन पर निर्धारित किए गए आयकर अर्थात इनकम टैक्‍स दे ही रहा है उपर से रोज मर्रा की जरूरी सारी चीजें मसलन पेट्रोल से लेकर पानी तक, चावल से लेकर दवाई तक में अलग से अन्‍य प्रकार के टैक्‍स को चुकाना पड रहा है। इसका मतलब जिन रूपयों पर वह पहले से ही सरकार को निर्धारित टैक्‍स अदा कर चुका है फिर से दुबारा उन्‍हें कई प्रकार के टैक्‍स को चुकाना पड ही रहा हैा ऐसे में यदि टैक्‍स के पैसे का इस तरह से दुरुपयोग किया जाए तो फिर टैक्‍स देने वाले लोगों में क्‍या भाव जागृत होगा।
क्‍या वर्तमान परिदृश्‍य में टैक्‍स की उपयोगिता पर सवाल उठाना उचित नहीं, क्‍या अपनी मेहनत से कमाए गए पैसों से टैक्‍स देने वाले लोगों को उनके टैक्‍स के पैसों के खर्च का हिसाब लेने का हक नहीं। इसमें पारदर्शिता की जरूरत है। अब हमें दुबारा नए सिरे से सोचना होगा कि सरकारी सिस्‍टम के फेल होने के कारण ही यदि एक वार्षिक बजट जितने का पैसा यदि ए राजा, कलमाडी और मधु कोडा जैसे दो चार लोग ही हडप जाते हैं तो फिर आयकर अर्थात इनकम टैक्‍स से हमें मुक्ति क्‍यों नहीं। हम क्‍यों पीसे जा रहे हैं गरीबों आम जनता की भलाई के नाम पर। क्‍यों हमारी मेहनत के, पसीने के कमाई पर सेंधमारी की जा रही है टैक्‍स के नाम पर। यह सब कुछ बंद होना चाहिए। सरकारी तंत्र को अब हर हाल में सोचना चाहिए कि क्‍या हमसे टैक्‍स लेकर यूं ही हमें बेवकूफ बनाया जाता रहेगा।

भ्रष्‍टाचारियों पर अंकुश की नाकाम कोशिश

पिछले कई दिनों से भ्रष्‍टाचार के अनगिनत मामले प्रकाश में आए। कुछेक मामले में कार्रवाई भी कई गई मगर सवाल यही उठता है कि किसी भी प्रकार के भ्रष्‍टाचार के मामले में कार्रवाई निचले स्‍तर तक ही जाकर सिमट जाती हैा कभी भी भ्रष्‍टाचार के मामले में पूरे दल को अर्थात नीचे से लेकर उपर तक के लोगो को घसीटा नहीं जाता हैा भ्रष्‍टाचार कभी भी किसी एक स्‍तर पर नहीं हो सकता। यह नीचे के कार्मिकों से आंरभ होकर उपर के आला अधिकारियों तक जाकर समाप्‍त होता हैा किसी भी प्रकार का भ्रष्‍टाचार तभी संभव है जब नीचे से लेकर उपर तक के अधिकारी व कार्मिक मिल जुलकर इसे अंजाम न पहुंचाए। अधिकतर मामले में यही देखा गया कि भ्रष्‍टाचार का मामला प्रकाश में क्‍या आया सिर्फ नीचे के स्‍तर के कार्मिकों पर कार्रवाई की गयी और उपर के अधिकारी जो मुख्‍य रूप से भ्रष्‍टाचार से जुडे रहते है उनका नाम तक प्रकाश में नहीं आया। एक दो मामले को यदि छोड दिया जाए जो कि रक्षा से संबंधित हैं बाकी सभी मामले इसी तरह के हैं। चाहे ए राजा प्रकरण हो, मधु कोडा प्रकरण हो या फिर कलमाडी प्रकरण, मुझे यही लगता है ऐ सारे के सारे तो सिर्फ मोहरे मात्र हैं, इनके पीछे इनसे जुडे लोग तो आज भी प्रकाश में नहीं आ पाए हैं।
साधारण से साधारण मामले में भी यही होता आया हैा अभी पिछले कुछ महीनों से ट्राफिक पुलिस से संबंधित लोकल न्‍यूज पेपरों में आए दिन भ्रष्‍टाचार के मामले प्रकाश में आ रहे हैं और यहां भी वही हो रहा हैा महज उन लोगों पर ही नाम मात्र कार्रवाई की जा रही है जिनसे संबंधित मामले प्रकाश में आ रहे हैं। मगर सवाल यही उठता है कि क्‍या ट्राफिक पुलिस में कार्यरत कार्मिकों के द्वारा बिना अपने उच्‍च अधिकारियों की जानकारी के यह सब कुछ अंजाम दिया जा रहा है, यदि ऐसा है तो भी उच्‍च अधिकारियों के लिए ऐ शर्म की बात है। मुझे तो बिलकुल भी ऐसा नहीं लगता कि बिना आला अधिकारियेां के मिलीभगत के कोई ट्राफिक पुलिस में काम करने वाला नीचे स्‍तर का कार्मिक दिन दहाडे रोजना वसूली का कार्य करने में मशगूल रहेगा। यहां सिर्फ नीचे स्‍तर के वैसे कार्मिकों पर कार्रवाई की जा रही है जिनके मामले अखबारों में प्रकाशित हो रहे हैं जबकि इनके द्वारा भ्रष्‍टाचार को अंजाम दिलाए जाने वाले अधिकारी साफ बचते फिर रहे हैं। क्‍या इससे भ्रष्‍टाचार पर अंकुश संभव है, क्‍या यह कार्रवाई आम जनता की आंख में धूल झोंकने का प्रयास भर नहीं हैा
आज समूचा हिन्‍दुस्‍तान भ्रष्‍टाचारियों के कारनामे से चर्चित हैा हम हर ओर घिरे पडे हैं इन भ्रष्‍टाचारियों के जमात से और सरकार, प्रशासन अपनी आंख बंद किए हुए हैा मामले प्रकाश में लाने की जिम्‍मेदारी लगती है सिर्फ न्‍यूज चैनलों और अखबारों पर छोड दिए गए हैं।

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

कसाब की फांसी पर चर्चा

पिछले दिनों हार्इ कोर्ट ने अजमल कसाब की फांसी पर अपना फैसला देते हुए उसकी फांसी की सजा को बरकरार रखा। उसी रात आईबीएन 7 के न्‍यूज नेटवर्क पर अजमल कसाब को अधूरा इंसाफ शीर्षक चर्चा प्रसारित की गई और उस चर्चा के दौरान दोनों वकीलों के साक्षात्‍कार प्रसारित किए गए और फिर लम्‍बी बहस की गई कि क्‍या सही हुआ क्‍या गलत हुआ।
ऐ हिन्‍दुस्‍तान है जनाब और यहां की धरती पर आकर यहां के वाशिंदे को कत्‍लेआम कर देने वालों के साथ भी हमारे अपने मुल्‍क में कई रहनुमां हैं इसके साथ हमारे देश का कानून भी है जो पूरी सत्‍यनिष्‍ठा के साथ मेहमान की तरह रखते हुए फ्री में वकील सुविधा देकर केस को लडने का मौका देता हैा
कसाब की बात तो दूर की है हमारे संसद पर हमला करने वाले मुख्‍य आरोपी अफजल गुरु जिसको फांसी की सजा सुप्रीम कोर्ट ने दे रखी है और जिस पर हमारे माननीया राष्‍टपति महोदया ने भी अपनी रहम की भीख देने से मना कर दी इसके बावजूद आज तक उसे सरकारी मेहमान बना कर रखा गया है सारे सुख सुविधाओं को देकर और तो और अभी हाल ही में ये भी प्रयास किया जा रहा है कि उसे जम्‍मू कश्‍मीर की जेल में स्‍थानांतरण कर दिया जाए ताकि उसकी बूढी मां उसे रोजाना देख सके। ऐ हद की इंतहा हैा
कहां हैं हम, हम से बेहतर तो अरबी देश है जहां महज चोरी करने पर पकडे जाने पर हाथ पैर काट दिया जाता है वो भी सरेआम। आज जबकि समूचे विश्‍व में आतंकवाद अपना पैर पसार चुका है इस परिद़श्‍य में जरूरत है सख्‍त कानून बनाने की न कोई कोर्ट न कोई ट्रायल सिर्फ सजा और भी सख्‍त से सख्‍त ताकि इससे दूसरो को सबक मिल सके।

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

स्विस बैंक में जमा काला धन

पिछले कई महीनों से कभी बाबा रामदेव जी तो कभी बीजेपी और उनकी सहयोगी पार्टियों द्वारा विदेशों खासकर स्विस बैंक में जमा भारतीयों के काले धन को वापस हमारे देश में लाने की बातें की जा रही हैा कहा यह जा रहा है कि यदि विदेशों में जमा काले धन को भारत लाने में सफलता मिल गई तो भारत की अर्थव्‍यवस्‍था काफी मजबूत हो जाएगी, ऐ हो जाएगा, वो हो जाएगा। मैं एक बात जानना चाहता हॅूं कि क्‍या भारत में रुपये पैसों की कमी रही, क्‍या कभी किसी बजट में पिछले बजट की अपेक्षा कम बिल पर सहमति बनी। साल दर साल बजट राशि में तो बढोत्‍तरी होती ही जा रही है। और तो और कई ऐसे रास्‍ते भी तलाशते जाते हैं जिनसे नेताओं की झोली भरी जा सके। गरीबों के लिए जितने भी योजना संचालित हैं उनमें से सभी योजनाओं का बंदरबाट इस हद तक जारी है कि वास्‍तविक गरीब तक इसका फायदा 1 प्रतिशत तक भी नहीं पहुंच पाता हैा इस देश को भ्रष्‍टाचार की घून लग चुकी है, नीचे से लेकर उपर तक के लोग इसमें जकड चुके हैं। पहले की बात और थी जब भ्रष्‍टाचार में नाम शामिल होने का मतलब होता था राजनीतिक मौत मगर अब न जाने क्‍या हो गया है वे बिंदास अंदाज में सरकारी तंत्र में शामिल रह रहे हैं और उनके बीबी बच्‍चे कहीं सांसद तो कहीं राज्‍यसभा के सदस्‍य बनाए जा रहे हैं। चाहे कोडा प्रकरण हो या फिर कलमाडी या अभी हाल ही के राजा प्रकरण मुझे लगता है सिर्फ इन तीनों ने ही मिलकर हिन्‍दुस्‍तान के इतने बडे भ्रष्‍टाचार को अंजाम दिया जिससे शायद इस देश के सारे के सारे गरीबों की गरीबी दूर हो सकती थी। आज की परिस्थिति में मैं बाबा रामदेव महाराज जी के इस आग्रह को कि विदेशों में जमा काले धन को भारत वापस लाया जाए का बिलकुल भी समर्थन नहीं करता क्‍योंकि जब तक इस देश में लालू यादव, जार्ज फर्नाडीस, मधु कोडा, सुरेश कलमाडी, ए राजा जैसे नेता रहेंगे इस देश में कितने भी पैसे मंगाए जाए देश कंगाली की ओर ही बढता जाएगा। निक्‍कमाओं की फौजें बढती जा रही है दिन प्रतिदिन। बाबा रामदेव जी से मेरा यही सवाल है कि जब हम अपने पैसों की हिफाजत नहीं कर पा रहे और भ्रष्‍टाचारी लोग इस पैसों को अपनी बपौती बनाए फिर रहे हैं तो फिर क्‍या गारंटी है कि विदेशों में जमा किए गए काले धन को भारत वापस लाने पर उन पैसों का सदुपयोग ही किया जाएगा।
इसलिए जब तक इन जैसे भ्रष्‍टाचारियों पर सख्‍ती से कार्रवाई करते हुए इनके पूरे जायदाद को सरकारी सम्‍पत्ति घोषित नहीं किया जाए और इनके पूरे परिवार को राजनीति से बेदखल न कर दिया जाए त‍ब तक इस मसले को छेडना उचित जान नहीं पडता।

सोमवार, 31 जनवरी 2011

तुम्‍हारा वो घर

आज भी वहां से गुजरते हुए तुम्‍हारे मकां की तरफ देखने की हिम्‍मत नहीं होती, कौन कहता है वक्‍त के साथ सबकुछ बदल जाता है, तुम्‍हारा भी शायद ऐसा ही मानना था, लेकिन कमबख्‍त वक्‍त आज तक मुझे बदल ही नहीं पाया। मैं जहां था 1994 में आज भी लगता है जैसे वहां ही खडा हूं। मेरे आस पास के सारे नजारे पूरी तरह से बदल गए मगर नहीं बदला तो मैं और मेरी मानसिकता।
मुझे अच्‍छे से याद है 1994 में जबकि मैंने मोहब्‍बत की राहों में चलना आरंभ ही किया था, मुझे तुम्‍हारी ओर तो छोडो तुम्‍हारे मकां तक देखने की हिम्‍मत नहीं होती थी, चोरी छिपके नजरे बचाके देखने की जुर्रत करता था वो भी काफी हिम्‍मत करके और ऐ आज का वक्‍त है जबकि मेरी मोहब्‍बत के निशां तक बाकी नहीं रहे मगर इसके बावजूद आज भी मुझमें हिम्‍मत नहीं कि नजरें उठाकर तुम्‍हारे मकां की ओर देख सकूं। आज भी तुम्‍हारे मकां की ओर चोरी छिपके ही नजरे फिरती हैं वो भी काफी हिम्‍मत करने के बाद।
कौन कहता है वक्‍त के साथ सबकुछ बदल जाता है.............।