रविवार, 22 मई 2011

पहली मोहब्बत का इजहार

मोहब्बत का इजहार करना कितना कठिन होता है उपर से उस समय जब आपको यह मालूम न हो कि उसके दिल में आपके लिए क्‍या है।

वर्ष 1994 की बात है जब मैं इंटर का प्रथम वर्ष का छात्र था। अगस्‍त का महीना चल रहा था जबकि मैंने आत्‍महत्‍या की नाकाम कोशिश की थी वजह सिर्फ और सिर्फ घरेलू परेशानी थी। इस सदमे से उबरने के बाद मैं जिंदगी जीने की जद्दोजहद कर ही रहा था कि पडोस में रहने वाली एक शख्‍स ने मेरे दिल में एक नई जिंदगी के रूप में दस्‍तक दी। मैं मानसिक रूप से परेशानी की हालत में था, खुद को इस दुनिया के किसी कोने में रख पाने का हौसला बिलकुल ही खो चुका था। ठीक इसी समय मुझे लगा कि मुझे एक नई जिंदगी मिल गई। उसकी ओर मैं खींचा चला गया सिर्फ जिंदगी जीने की मजबूरी के कारण। 

मुझे ऐसा लगने लगा कि वही मेरी जिंदगी है और मैं उसे जिंदगी मानकर पुराने गम को भूलने की कोशिश करने लगा।

इस बात की खबर मेरे दोस्‍त प्रमोद पंडित को हो गई उसने मुझे अपनी मोहब्‍बत का इजहार उस शख्‍स से करने की बात कही मगर मैं इसके लिए तैयार नहीं हो रहा था किंतु मेरे उस दोस्‍त ने मुझमें शक्ति का संचार किया और परिणामस्‍वरूप मैं एक लम्‍बा चौडा पत्र जिसमें अपनी दिल की बातें कई शेरो शायरी के साथ लिखकर कुछ ही दिनों में उसे अपनी मोहब्‍बत का इजहार करने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो गया।

एक दिन जब वह टयूशन के लिए घर से निकली मैं दूसरे रास्‍ते से अपने हाथों में पत्र लेकर निकल पडा। थोडी ही देर के बाद हम दोनों आमने - सामने थे। मेरा दिल जोर-जोर से धडक रहा था। मेरी सांसें थम-थम कर चलने लगी थी। मेरे पांव इतने भारी हो गए थे कि जहां मैं खडा था वहां से एक कदम न तो आगे बढ पा रहा था और न एक कदम पीछे की ओर ले पा रहा था। इसी दौरान मैंने उसका नाम लेते हुए अपने हाथों मे रखे उस पत्र को उसकी ओर बढाकर कहा,
''एकटू ऐटाके पढे निबेन''
उसने मुस्‍कुराते हुए जवाब देते हुए कहा,
''केनो''
मैंने फिर से उससे कहा,
''एकटू पढे निबेन ना''
इस बार उसने बहुत ही विनम्र आवाज में कहा,
''देखून आमार टयूशन लेट होच्‍छे आमके जेते देन''
उसकी इस विनम्रता पर मैंने सहजता से कहा
''ठीक आच्‍छे''
और फिर हम दोनो के पांव दो विपरीत दिशा की ओर बढ गए।

मैं वापस घर आया और चुपचाप खामोशी से अपने बिस्‍तर पर लेट गया। थोडी देर के बाद मेरा दोस्‍त प्रमोद आया और मुझसे इजहारे मोहब्‍बत के बारे में पूछने लगा तो मैंने उसे विस्‍तार से बताया। इस पर उसने मुझे धीरज देते हुए कहा कि इसमें परेशानी की क्‍या बात है उसने तुम्‍हारे पत्र देने के दौरान न तो गुस्‍सा दिखाया और न ही तुमसे ऐसा नहीं करने संबंधी कोई बात कही। यदि उसके दिल में तुम्‍हारे लिए कोई जगह नहीं होता या फिर उसके दिल में कोई और लडका होता तो वह जरूर गुस्‍सा होती और तुमसे गुस्‍से में आकर कुछ जरूर कहती। मैं उसकी बातों से सहमत भी हुआ मगर.................।

कुछ ही दिनों बाद मेरे घर पडोस में रहने वाला एक छोटा लडका आया और मुझसे पूछा, ''सुमन भैया क्‍या आप आज बैडमिंटन खेलने नहीं जाएंगे''। उन दिनों सर्दी के मौसम में मैं आस पडोस के कुछ हमउम्र तथा छोटे लडकों के साथ शाम को बैडमिंटन खेला करता था। उस दिन मुझे घर से निकलने में देर हो चुकी थी तभी वह लडका मुझसे इससे सबंधित पूछने आया था। मैंने उससे कहा कि ''तुम चलो मैं थोडी ही देर में मैदान में पहुंचता हॅूं''।

कुछ ही देर बाद मैं अपना बैडमिंटन लेकर मैदान में पहुंचा तो मुझे मामला कुछ अजीब लगा, क्‍योंकि वहां मैदान के आस पास वह शख्‍स अपनी कुछ सहेलियों के साथ टहल रही थी। यह पहली बार था। मैं जैसे ही बैडमिंटन कोर्ट के पास पहुंचा, वह शख्‍स अपनी सहेलियों के साथ मेरे पास आई और उसने मुझसे कहा, ''.........हम आपको लाइक नहीं करते, आपके पास मेरा जो भी फोटो है मुझे वापस कर दीजिए'', अचानक हुए इस हमले पर मैं असहज रूप से उत्‍तर देते हुए कहा, ''मेरे पास जो फोटो है उसमें सिर्फ आप ही तो नहीं हैं''। मेरे इस जवाब पर उसकी सहेलियां बोलने लगीं, ''तो फिर और कौन लोग होगा उस फोटो में हम लोग होंगे''। मैंने फिर जवाब देते हुए कहा, ''नहीं आप लोग नहीं हैं''। और फिर कुछ देर खामोश रहने के बाद मैंने कहा, ''ठीक है, आज ही मैं वह फोटो वापस कर दूंगा'' इतना कहकर मैं वहां से अपने घर वापस आ गया।

जिस फोटो को वापस करने की बात मैंने कही थी वह एक ग्रुप फोटो थी, कुछ परिवार के सदस्‍यों की जिसमें मेरे पडोस में रहने वाली वह लडकी भी थी।

मैं घर वापस आया, बहुत रोया, बहुत रोया। मुझे ऐसा लगा जैसे मैंने अपने जीने का हक खो दिया है। मैंने तुरंत ही सारे के सारे डायरी के पन्‍ने जो उसकी यादों में मैंने लिखे थे, को फाडकर आग के हवाले कर दिया और फिर कुछ देर बाद उस फोटो को लेकर उसकी सहली के पास गया और फोटो वापस करने के बारे में बताया।

कुछ ही देर के बाद वह शख्‍स अपनी सहेली के साथ मेरे नजर के सामने थी। मैंने उसकी हाथों में फोटो रख दी। उस ग्रुप फोटो को देखकर वह जोर से हंसने लगी। न जाने मुझे ऐसा क्‍यों लगा कि यह मेरी मोहब्‍बत पर हंसी की जा रही है। मैं पलटकर वापस जाने ही वाला था कि अचानक मुझे याद आया कि उस फोटो का एक और टुकडा तो मेरे कॉलेज के आई.डी कार्ड के पीछे घुसा हुआ है। मैंने पलटे हुए अपने पॉकेट में रखे आई.डी कार्ड के पीछे से उस फोटो के टुकडे को निकाला और उस शख्‍स के हाथों में थमा दिया और वापस चल गया अपने उस वीरान घर की ओर। अब इस जहां में मेरा और कोई नहीं था सिर्फ और सिर्फ उदासी और गम के सिवा।

आज जबकि वर्ष 2011 का मई महीना चल रहा है, वर्ष 1998 के इसी मई महीने के 19 तारीख को वह शख्‍स अपने परिवार के साथ मेरे पडोस के घर को छोड कई किलोमीटर दूर रहने चली गई थी। आज भी हर एक दिन हर एक लम्‍हा जो मैंने उसकी यादों में बीताया है मुझे उसके साथ अपने पन की याद दिलाता है। वह जहां भी रहे खुशहाल रहे, अपने इष्‍ट से यही दुआ करता हॅूं।