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अगस्त 6, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मुद्रास्फुर्ति और वास्तविक महंगाई

स्थानीय बाज़ारों में बदस्तूर बढ़ती हुई महंगाई ने आम लोगों के जीवन को नर्क सा बना दिया है। एक तरफ़ आंकडों की बाजीगरी में महंगाई की दर शुन्य से भी नीचेहै और दूसरी तरफ़ वास्तविक जीवन में महंगाई के मार से हर तरफ़ हर कोई परेशान सा है। महंगाई पर काबू करने की दिशा में कोई सार्थक प्रयत्न धरातल पर दिखाई नहीं दे रहा है। आलू से लेकर चीनी तक हर कुछ आम आदमी के पहुँच के बाहर है। ना तो जमाखोरों पर लगाम लगनी की दिशा में कोई सार्थक प्रयास ही हो रहा है और ना ही बाज़ार के इस ऊँचे दामों का फायदा किसानों को ही मिल रहा है। कभी बारिश की कमी तो कभी मुसलाधार बारिश के कहर से परेशां आम किसान तो हर बार धोखा ही खाता है। ऊँचे तबके वाले किसानों की बैंक लोन माफ़ कर दी जाती है मगर उन छोटे छोटे किसानों का क्या तो घर के पैसों से खेती बारी करतें हैं और उन्हें कोई सरकारी सहायता तक नसीब नहीं होती। शहर में बिक रही सब्जियों के भाव मंडियों से दुगुने और कुछ ही दूरीपर स्थित गाँव से चौगुनी होती है। कोई देखेवाला नहीं, कोई इस पर लगाम लगानेवाला नही। हर चीज की कालाबाजारी की जा रही है। बाज़ार में सामानों की कमी दिखाकर सामानों को गोदामों