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जून, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सबसे छोटे भाई की मंगनी (इंगेजमेंट)

मेरे घर का सबसे छोटा बेटा और मेरा सबसे छोटा भाई सत्यार्थ सुमन वर्तमान में UCIL जादूगोड़ा में वैज्ञानिक सहायक के पद पर कार्यत है। पिछले कई वर्षों से उसकी शादी की बातचीत चल रही थी। उस दौरान मैं दुर्गापुर में ही था। कई लड़की वालों के प्रस्ताव आये थे। कई लड़कियों के फोटो भी आये थे और कई लड़कियों को देखने मेरे माता पिताजी अपने दामाद और बेटी के साथ गए थे। सितम्बर, 2008 से मैं अपनी पत्नी और बेटे के साथ जमशेदपुर में ही रह रहा हूँ। इस वर्ष मुझे अपने परिवार के साथ अपने भाई की शादी के लिए दो जगह लड़की देखने का न्योता भी मिला। पहले वाली लड़की हमारे परिवार को पसंद नहीं आई मगर दूसरी लड़की जिसे हमलोग देखने राम मंदिर, बिस्टुपुर गए वे हम सबों को पसंद आई। इसके कुछ दिनों के बाद माँ ने हमारी मौसी को गाँव से बुलाया। मौसी गाँव से आई तो हमें बताया गया की मौसी भी लड़की देखने जा रही है। मौसी, माँ घर की मंझली बहू, मंझला बेटा, बेटी और दामाद भी लड़की देखने गए। कुछ दिनों के बाद मुझे किसी और ने ये सूचना दी कि उस दौरान ही मेरे सबसे छोटे भाई की मंगनी कर दी गयी, मंगनी का मतलब एंगेजमेंट अर्थात लड़की और लड़के दोनों ने एक दूसरे

मेरे पास तो माँ भी नहीं है.

हर दिन रात को जब कमरे में सोने जाता हूँ, लाईट बंद करके जैसे ही बिस्तर पर लेटता हूँ, मेरे जेहन में दीवार फिल्म का वो सीन तरोताजा हो जाता है। ऐसा लगता है जैसे बिलकुल ही मेरी आँखों के सामने वो सीन चल रहा है जब एक भाई दुसरे भाई से कहता है "मेरे पास बंगला है, मोटर है, कार है, ............. तुम्हारे पास क्या है" और दूसरा भाई जवाब देते हुए कहता है "मेरे पास माँ है"। ये सीन, ये संवाद हर रात को मेरे जेहन के आर-पार होता है और मुझे ये सोचने पर विवश कर देता है कि फिल्म और असल जिंदगी के बीच कितने फर्क है. कहाँ इस फिल्म में वो माँ जो बचपन से जिस बेटे से ज्यादा प्यार करती रही महज गलत रास्ते पर चलने के कारन वो उस बेटे के बदले अपने दुसरे बेटे का साथ देना पसंद करती है और उसके साथ उसके घर में रहने लगती है। मेरे अनुसार आज तक मैं अपने रास्ते पर सही था, सही हूँ और मुझे खुद पर विश्वास है कि आगे भी सही ही रहूंगा। मेरी शादी जो कि 30 अप्रैल, 2002 में हुई, इससे पहले मैं अपने घर का दुलारा बेटा था, अपनी माँ का सबसे प्रिय बेटा था। आज मेरे पास जो कुछ भी है वो सिर्फ मेरी माँ की ही देन हैं। इसका एह

बड़ा बेटा और छोटे भाई की शादी.

मुझे मिलाकर हम तीन भाई हैं। इनमें से सबसे बड़ा मैं ही हूँ। मेरे बाद वाले भाई पुरुषार्थ सुमन, जिसे हम सब प्यार से छोटू बोलते थे। वो कम उम्र से ही रंगीला मिजाज का रहा है। दिखने में भी वो अक्षय कुमार से कुछ कम नहीं लगता था। छोटे उम्र से ही उसका झुकाव लड़कियों की तरफ ज्यादा रहा था। इंटर तक की पढाई करने के बाद जमशेदपुर के टेल्को मैदान में ही हुए आर्मी के सेलेक्सन कैंप में उसका चयन हो गया और उसने बड़ी ही कम उम्र में आर्मी ज्वाइन कर ली। उस समय मैं NICT कंप्यूटर इंस्टिट्यूट में कंप्यूटर शिक्षक के रूप में कार्य कर रहा था। मुझे अच्छे से याद है जब उसकी आर्मी की ट्रेनिंग चल रही थी, एक दिन उसने मुझे फ़ोन किया था और रो रोकर मुझसे आर्मी की नोकरी छोड़ने की बात बोल रहा था। मैंने उसे समझाया था कि पागल हो क्या? आज के ज़माने में भला नोकरी किसी को मिलती है क्या? ऐसा हरगिज नहीं सोचना। वो अक्सर फ़ोन पर माँ से भी यही बातें करता और माँ बोलती थी कि बेटा तुम्हारी शादी कर दूँ फिर तुम ये आर्मी की नोकरी छोड़ देना। मेरी शादी तो हो ही चुकी थी। उसकी शादी के लिए भी लड़की वाले आ ही रहे थे। बहुत सारे लड़की वालों से उसकी

पिताजी का धन.

बात कई वर्ष पहले की है। मेरे पापा जो कि उस समय टिस्को में काम करते थे। वे अपनी सर्विस ना के बराबर ही करते थे। महीने में औसत 10 दिन की ही सर्विस करते थे। उनका सारा का सारा समय सिर्फ और सिर्फ जन सेवा और सामाजिक कार्य में बीतता था। उस वर्ष टिस्को में ESS का स्कीम आया, तो मेरी माँ और अन्य परिवार के लोगों ने पापा को समझकर ESS लेने को कहा और मेरे पापा ने ESS ले लिया। उस समय मैं NICT कंप्यूटर संस्थान में कंप्यूटर शिक्षक के रूप में कार्य कर रहा था। मैं घर का बड़ा बेटा था बावजूद इसके मुझे ये जानकारी नहीं कि उनके ESS लेने के समय उन्हें राशि मिली थी। मुझे अच्छे से याद है कि मेरे पापा ने उस समय श्री किशोर यादव जो कि NICT कंप्यूटर इंस्टिट्यूट के मालिक थे, उनके हाथों जबरदस्ती करके मेरे और मेरे छोटे भाई के नाम से सिंहभूम क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक में 50 - 50 हजार रुपये फिक्स करवा दिए थे। इस विषय पर मेरी और मेरे छोटे भाई ने अपने पापा से काफी बहस भी की थी, कि आखिर क्यों हमारे नाम से रुपये फिक्स कर रहें हैं। उस समय मेरे पापा ने कहा था "बेटा नौकरी का क्या भरोसा है? कम से कम ये फिक्स किये गए 50 हजार रुप

मेरी एकतरफा मोहब्बत और तुम्हारी यादें.

दिनांक 25 मार्च 2014 को अपडेटेड 1994 - आत्महत्या की मेरी नाकाम कोशिश के बाद जब मेरे दिल की धडकनों में तुम्हारी यादों ने एक नए जीवन के रूप में दस्तक दी। तुन्हारे निगाहों में ना जाने क्यों मुझे मेरे जीवन की डोर दिखाई दी। 1994 - "हम आपको लाइक नहीं करते" ये शब्द खुद तुम्हीं ने अपनी जुबान से हमें कहा था, जिसे हम बेइंतहा मोहब्बत करते थे। एक वाक्य ने मेरे अरमानों को तार तार कर दिया। मैं तो जीते जी ही मर चूका था। 1994 - एक तेरी तस्वीर जिसे देख देखकर मैं जीने की कोशिश कर रहा था, वो भी तुमने मुझसे छीन ने। क्या मिला तुम्हे मेरा सुकून छिनकर. 1995 - टूटे हुए दिल और टूटे हुए दिल के अरमानों के साथ किसी तरह से जीने की कोशिश कर रहे थे। तुम्हें चाहकर भी नहीं भुला पा रहे थे। तुम्हारी यादें को अपने जीने का सामान बना लिया था. 1996 - 23 जनवरी, को जब भाभी के घर तुम्हारी सहेलियों के साथ तुमसे आमना सामना हुआ और मैंने अपने हाथ पर लिखे हुए तुम्हारे नाम को काट दिया। एक बार फिर से तुम्हे भूलने की एक और नाकाम किशिश की. 1997 - तुम्हारे बिना दुर्गा पूजा का कोई महत्व ही नहीं रहा, तुम दुर

मेरा जीवन और भूली बिसरी यादें.

3 मार्च 1978 को मेरा जन्म जमशेदपुर में हुआ। मेरे पापा टाटा स्टील में परमानेंट थे। मेरी माँ हाउस वाइफ थी। पिताजी टाटा स्टील के वर्कर कम एक समाजसेवक ज्यादा थे। मेरे जन्म से पहले मेरे माता पिता दोनों ही गायत्री युग निर्माण योजना से संस्थापक पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी से और उनकी संस्था से जुड़े हुए थे और वे दोनों ही श्री आचार्य जी से सत्संग मण्डली में भजन आदि के कार्यक्रम करते थे। मेरे जन्म के बाद मेरे माता पिता दोनों ही पारिवारिक रूप से अपना जीवन यापन करने लगे। बागबेरा रेलवे कालोनी, लाल बिल्डिंग जो कि टाटानगर रेलवे स्टेशन से महज 2 किलो मीटर की दूरी पर स्थित है, वहां मेरी परवरिश एक झोपडी नुमा मकान में हुई। रेलवे की जमीन पर अतिक्रमण कर यहाँ मेरे पापा ने कुछ घर बनाए थे जिसमें हमलोग रह रहे थे और साथ ही साथ कुछ घरों को भाड़े पर लगाया गया था। मैंने अपना बचपन और जवानी दोनों इसी घर में बिताया। इस घर के आस पास रेलवे के घर थे जिसमें रेलवे में काम करने वाले कर्मचारी रहते थे। आस पास के लोगों से हमारा ताल्लुक ना ही के बराबर था। बचपन से लेकर जवानी तक पड़ोसियों से कोई सम्बन्ध नहीं के बराबर रहा। जमशेदपुर

साईकिल का अरमान

बात उन दिनों की है जब मैं 1995 में इंटर पास करके B Sc. (Math) में नामांकन कराया था। उस वक़्त मैंने tuition के लिए आदर्श नगर, सोनारी में कोपरेटिव कालेज के प्रोफेसर के यहाँ अपना नामांकन कराया। मेरे घर से सोनारी की दूरी लगभग 10 किलो मीटर थी। मेरे पास वोही पुरानी साईकिल जो मेरे पापा की थी जिसका उपयोग मैं 1992 से करता आ रहा था। इसी साईकिल से मैंने KMPM स्कूल, बिस्टुपुर जाकर क्लास IX और X की पढाई की और मेट्रिक पास किया, इसी साईकिल से मैं KMPM इंटर कॉलेज, बिस्टुपुर जाकर XI और XII की पढाई की और इंटर पास किया। अब चूँकि मैंने SP कॉलेज, parsudih में Graduation के लिए अपना नाम लिखा लिया था और tuition के लिए मुझे सोनारी जाना पड़ रहा था इसलिए मैंने अपने पापा से एक नयी साईकिल के लिए कहा। ऐसा नहीं कि मैंने अपनी साईकिल के लिए पहली बार अपने पापा से कही हो, ये मैं विगत 4 वर्षों से उनसे कहता आ रहा था, लेकिन मुझे नयी साईकिल नहीं मिल रही थी। मगर इस बार मैं जिद पर आ गया और मैंने भूख हड़ताल कर दी और कहा कि जब तक मुझे नयी साईकिल नहीं मिलेगी मैं खाना नहीं खाऊंगा। अंततः मेरे पापा मुझे लेकर साईकिल खरीदने के लिए घर

कैसे मैं भूल जाऊं उसे?

कितना आसान है ये कहना कि भूल जाओ। मगर क्या ऐसा मुमकिन है? मैंने अपनी जिन्दगी में ये आजमा कर देखा है? एक तरफा मोहब्बत की तपिस में जल जलकर किसी की निगाहों में अपनी जिन्दगी का सवेरा देखा है। नफरत भरी नज़रों में न जानें क्यूं अपने लिए बेइंतहा प्यार देखा है। किसी को अपनी धडकनों में बसाकर अपनी निगाहों में उसका अख्स बिठाकर फिर उसे भूल पाना भला कैसे संभव हो सकता है? जिसकी याद मेरी सांसों में दोड़ते हुए खून की तरह फ़ैल चुकी हो उसे भला भूल पाना कैसे संभव हो सकता है? 1994 से लेकर आज तक सब कुछ बदल चुका है। यदि नहीं बदला तो सिर्फ मेरा अंतर्मन और मेरी दिल का वो एहसास जो किसी के प्रति समर्पित था। 1994 से 28 नवम्बर, 2000 के बीच जबकि मेरी उससे कोई व्यक्तिगत मुलाकात तक नहीं हुई थी, मेरी आँखे हर दिन उसके दीदार को प्यासी भटकती रहती थी. उसकी एक नज़र पाने भर को मैं बेचैन हो उठता था। 29 नवम्बर, 2000 ने मेरे उन सारे एहसासों को मिटा दिया। मेरी सोच को मुझे बदलने को मजबूर कर दिया। इस दिन में स्वप्न लोक की नगरी से धरातल पर वापस आया और मैंने खुद का सही आंकलन किया। एक तरफ मेरी दम तोडती मोहब्बत थी तो दूसरी तरफ वो