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...................दिनांक : 29 नवम्बर, 2000
...................समय : 10.30 बजे सुबह
...................दिन : बुधवार
....................स्थान : आशीर्वाद होटल, बिस्टुपुर
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मेरी पहली और आखिरी मोहब्बत से यह मेरी पहली और आखिरी व्यक्तिगत मुलाकात थी। उससे मैं पिछले 6 वर्षों से एक तरफा मोहब्बत करता चला आ रहा था, यह जानने के बावजूद भी कि उसके दिल में मेरे लिए नफरतों का सैलाब भरा पड़ा है। वह मेरे जीवन में दिल कि धडकनों कि तरह समा चुकी थी, उससे मोहब्बत करके ही मैंने अपने जीवन को दुबारा जीना आरम्भ किया था। इस एक मुलाकात ने ही मेरी एक तरफा बेपनाह मोहब्बत की दिशा और दशा तय कर दी।
4 नवम्बर, 2000 (शनिवार) का दिन मेरे जीवन में भूचाल लेकर आया। यह दिन मेरे जीवन के लिए अप्रत्याशित और ऐतिहासिक रहा। मैं हर दिन की तरह ही NICT Computer में computer की classes ले रहा था तभी उसकी एक सहेली आई और मुझसे बोली की 'उसने आपको गुटखा खाने से मना किया है' यह सुनकर कुछ देर की लिए तो मैं विस्मित-सा हो गया और यह सोचने को विवश हो गया कि मेरी जिंदगी में ये क्या हो रहा है? जिस शख्स के दिल में मेरे लिए नफरतों के सिवा कुछ भी नहीं उसे मेरी जिंदगी कि अचानक इतनी फिक्र क्यों? अचानक ही मेरे दिल में दफ़न उसकी मोहब्बत आक्रोश से भर गई फ़िर स्वयं को सँभालने के बाद मैंने उसकी सहेली से कहा 'आकिर किस रिश्ते के तहत वो मुझसे गुटखा खाने को मना कर रही है?, यह मैं जानना चाहता हूँ।' मेरे इस सवाल पर उसकी सहेली ने मुझसे कहा 'यह तो मैं भी नहीं जानती हूँ' इसके बाद मैंने अपने इस सवाल का जवाब अपनी उस मोहब्बत से लेने के लिए मैंने उसकी सहेली को मुझसे एक बार उससे मिलाने का आग्रह किया। मेरे इस अनुरोध पर उसकी सहेली ने कहा 'मैं कोशिश करती हूँ।' और फ़िर वह चली गयी। इसकी कुछ दिनों बाद उसकी सहेली कंप्यूटर इंस्टिट्यूट आयी और मुझे मेरी मोहब्बत से मिलने की तारीख, समय तथा स्थान बताकर चली गयी।
तारीख 29 नवम्बर, 2000 समय 10.30 बजे और स्थान आर्शीवाद होटल बिस्टुपुर का पता चलते ही मेरे जीवन में मनो भूचाल-सा आ गया। अभी उससे मिलने को चार - पाँच दिन बाकी हैं मगर मेरी हालत क्या से क्या हो गयी है, यह मैं बता नही सकता। न तो कंप्यूटर की क्लास्सेस लेने का मन कर रहा है और ना ही किसी काम में मेरा मन लग रहा है, बस दिमाग उस तारीख, समय और स्थान पर जाकर स्थिर हो जा रही है जहाँ मुझे अपनी मोहब्बत से मिलने जाना है और फ़िर सोचने लगता है कि आख़िर मैं उस शख्स से मिलने की बाद क्या कहूँगा? क्या बातें करूँगा? जो मेरे दिल में धडकनों की तरह हर पल उफनती रहती है, जिसके बिना मैं अपने जीवन की कल्पना तक नहीं कर सकता। आख़िर मैं उस शख्स से मिलने के बाद क्या-क्या बातें करूँगा? इसी सोच में मेरा दिन और मेरी रात गुजर रही थी। मेरे दिल की क्या हालत थी, मेरे दिल के अन्दर उस समय क्या कुछ घमासान मच रहा था, यह सिर्फ़ और सिर्फ़ मैं ही जानता था।
यह सब कुछ होना वाजिब ही था क्योंकि मैं उस शख्स से मिलने जाने वाला था जो एक तरह से मेरी जिन्दगी की मंजिल थी, जिसपर मेरी जिन्दगी की सारी खुशियाँ निर्भर थी, वह भी मेरी पहली और आखिरी मोहब्बत से यह मेरी पहली और शायद आखिरी व्यक्तिगत मुलाकात होगी ये मैंने कभी सोचा ही नहीं था। इसी सब उथलपुथल में कब वह दिन आ गया इसका मुझे आभास ही नही हुआ।
सुबह जल्दी ही उठकर मैं कंप्यूटर इंस्टिट्यूट गया, वहां मैंने अनमने ढंग से एक क्लास ली। इस दौरान मेरे दिल का हाल बेहाल था। बाकी रातों की तरह ही पिछली रात भी मैंने इसी उधेड़बुन में गुजारी की आख़िर उस शख्स से मिलने के बाद मैं उससे क्या बातें करूँगा? जिससे मिलने की तमन्ना शायद मेरे दिल में सदियों से दफ़न थी, जिसका पल भर का दीदार मेरे अंतर्मन में लाखों-करोड़ों की संख्या में खुशियों का आवेश भर देता था। आख़िर आज उससे मिलने के बाद मैं उससे बात करूँगा तो क्या? उससे मिलने को निकलने के बावजूद अभी तक मैं यह तय नहीं कर पाया था कि उससे किस तरह की बातें करूँगा? इसी सोच में न जाने कब मैं उस स्थान आर्शीवाद होटल, बिस्टुपुर पंहुच गया जहाँ मुझे बुलाया गया था।
मैं होटल के अन्दर गया और अपनी निगाहें चारो तरफ़ दौडाई मगर मुझे मेरी मोहब्बत नज़र नहीं आई, इसके बाद मैं होटल के मुख्य दरवाजे के ठीक सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया और फ़िर मेरी नज़रें दरवाजे पर जाकर टिक गई। कुछ ही सेकेण्ड हुए होंगे की मेरी मोहब्बत अपनी उसी सहेली के साथ मेरी नज़रों के सामने आकर खड़ी हो गई। यह दृश्य मेरी लिए रोमांचित कर देने जैसा था। आज वह शख्स मुझसे मुलाकात करने आई थी जो मेरे दिल में धड़कन बनकर धड़क रही है, जो मेरी सांसों में हरपल अपनी यादों का रंग उडेल रही है, जो मेरी जिन्दगी का पर्याय बन चुकी है, जिसके बिना मेरी जिन्दगी आधी-अधूरी है, जिसकी यादों ने मुझे जीना सिखाया है, जिसकी मोहब्बत में मैं दीवानेपन की सारी सीमा को लाँघ चुका हूँ। आज वही मेरे सामने, मुझसे मुलाकात करने, मेरे बुलाने पर आयी है।
उन दोनों को अचानक यूँ सामने खड़ा देख मैं अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और उन दोनों से सामने की कुर्सियों पर बैठने का निवेदन किया। उन दोनों के कुर्सी पर बैठने के बाद मैं उनके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया। इस दौरान मेरे चेहरे पर पसीने तर-बतर फ़ैल चुके थे, जबकि नवम्बर का सर्द माह चल रहा था।
मैं अभी कुर्सी पर ठीक से बैठा भी नही था कि मेरी मोहब्बत के एक सवाल 'क्या बात है? आपने मुझे क्यों बुलाया?' ने मेरे अंतर्मन को झकझोर कर रख दिया। इस एक सवाल ने मेरी मोहब्बत के भविष्य की पटकथा लिख डाली। इस सवाल ने मेरे उस उधेड़बुन को लगभग समाप्त ही कर दिया, जिससे मैं पिछले कई दिनों से परेशान था की मैं अपनी मोहब्बत से मिलने के बाद क्या बातें करूँगा? इस एक सवाल ने मेरी आने वाली जिन्दगी का रुख तय कर दिया।
मेरी मोहब्बत के इस सवाल का मैंने सहजता से जवाब देते हुए कहा 'कोई बात नही थी, बस मैं मानसिक रूप से बहुत ही परेशान था इसलिए आपका दीदार करना चाहता था।' मेरे इस जवाब को सुनकर उसने बड़े ही बेतुके अंदाज में कहा 'ठीक है, तब मैं चलती हूँ।' मैंने सर हिलाकर स्वीकृति भी दे दी और कहा 'ठीक है' अचानक ही हमारे बीच के संवाद में उसकी सहेली आ गयी और उसने कहा 'यह क्या हो रहा है? कुछ तो बात होगी जरुर जो आपने इसे मिलने को बुलाया, शायद आपदोनों को मुझसे कुछ परेशानी हो रही है, इसलिए मैं कुछ देर के लिए बाहर जा रही हूँ, आप दोनों बात कर लें।' इतना कहकर वो होटल से बाहर निकल गयी।
उसके बाहर चले जाने के बाद मेरी मोहब्बत ने फ़िर वही सवाल मुझसे पूछा 'क्या बात है? आपने मुझे क्यों बुलाया?' इस बार मेरा जवाब उसे नहीं मिला, मैं खामोशी से उसकी निगाहों को पढने की असफल कोशिश कर रहा था। वह कुछ पल शांत बैठी रही फ़िर मुझसे बोली, 'अच्छा तो मैं चलती हूँ।' मैंने मुस्कुराने का प्रयास किया और धीमे स्वर में उससे कहा 'ठीक है' यह सुनकर वह कुर्सी छोड़कर उठाने को ही थी की मैंने आवेश में आकर उससे कहा, 'तुमने किस रिश्ते के तहत मुझसे गुटखा खाने को मना किया?' मेरे इस अचानक पूछे गए सवाल पर वह गंभीर हो गयी। कुर्सी पर दुबारा बैठते हुए उसने कहा 'इंसानियत के नाते' इस तरह का जवाब सुनकर मैं अन्दर से पुरी तरह से टूट गया, मेरे दिल में बचे-खुचे जो अरमानों के ढेर थे, वे भी जबरदस्त धमाकों के साथ तत्क्षण ही बिखर गए। मेरे दिल में भयानक पीड़ा की अनुभूति हो रही थी, मेरा पूरा शरीर धधकते हुए ज्वालामुखी की तरह कांप रहा था, ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे अंदर ही अंदर ज्वालामुखी फट चुका है और उसके गर्म अंगारे मेरे पूरे शरीर में रक्त बनकर दौड़ रही है। क्या यही मेरी उस मोहब्बत का प्रतिफल था? जिसकी आग में मैं पिछले 6 वर्षों से स्वयं को जलाता आ रहा था। इस दौरान ना तो मैंने कभी उससे मुलाक़ात करने की ख्वाहिश की और ना ही कभी किसी प्रकार की कोई जबरदस्ती या बदतमीजी उसके साथ की। बस मैं अपनी अलग जिंदगी में उसकी यादों को अपने दिल में लिए जीने की कोशिश कर रहा था। मुझे भरोसा था की कभी न कभी मेरी मोहब्बत पर उसका पत्थर दिल जरुर पिघलेगा।
...................दिनांक : 29 नवम्बर, 2000
...................समय : 10.30 बजे सुबह
...................दिन : बुधवार
....................स्थान : आशीर्वाद होटल, बिस्टुपुर
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मेरी पहली और आखिरी मोहब्बत से यह मेरी पहली और आखिरी व्यक्तिगत मुलाकात थी। उससे मैं पिछले 6 वर्षों से एक तरफा मोहब्बत करता चला आ रहा था, यह जानने के बावजूद भी कि उसके दिल में मेरे लिए नफरतों का सैलाब भरा पड़ा है। वह मेरे जीवन में दिल कि धडकनों कि तरह समा चुकी थी, उससे मोहब्बत करके ही मैंने अपने जीवन को दुबारा जीना आरम्भ किया था। इस एक मुलाकात ने ही मेरी एक तरफा बेपनाह मोहब्बत की दिशा और दशा तय कर दी।
4 नवम्बर, 2000 (शनिवार) का दिन मेरे जीवन में भूचाल लेकर आया। यह दिन मेरे जीवन के लिए अप्रत्याशित और ऐतिहासिक रहा। मैं हर दिन की तरह ही NICT Computer में computer की classes ले रहा था तभी उसकी एक सहेली आई और मुझसे बोली की 'उसने आपको गुटखा खाने से मना किया है' यह सुनकर कुछ देर की लिए तो मैं विस्मित-सा हो गया और यह सोचने को विवश हो गया कि मेरी जिंदगी में ये क्या हो रहा है? जिस शख्स के दिल में मेरे लिए नफरतों के सिवा कुछ भी नहीं उसे मेरी जिंदगी कि अचानक इतनी फिक्र क्यों? अचानक ही मेरे दिल में दफ़न उसकी मोहब्बत आक्रोश से भर गई फ़िर स्वयं को सँभालने के बाद मैंने उसकी सहेली से कहा 'आकिर किस रिश्ते के तहत वो मुझसे गुटखा खाने को मना कर रही है?, यह मैं जानना चाहता हूँ।' मेरे इस सवाल पर उसकी सहेली ने मुझसे कहा 'यह तो मैं भी नहीं जानती हूँ' इसके बाद मैंने अपने इस सवाल का जवाब अपनी उस मोहब्बत से लेने के लिए मैंने उसकी सहेली को मुझसे एक बार उससे मिलाने का आग्रह किया। मेरे इस अनुरोध पर उसकी सहेली ने कहा 'मैं कोशिश करती हूँ।' और फ़िर वह चली गयी। इसकी कुछ दिनों बाद उसकी सहेली कंप्यूटर इंस्टिट्यूट आयी और मुझे मेरी मोहब्बत से मिलने की तारीख, समय तथा स्थान बताकर चली गयी।
तारीख 29 नवम्बर, 2000 समय 10.30 बजे और स्थान आर्शीवाद होटल बिस्टुपुर का पता चलते ही मेरे जीवन में मनो भूचाल-सा आ गया। अभी उससे मिलने को चार - पाँच दिन बाकी हैं मगर मेरी हालत क्या से क्या हो गयी है, यह मैं बता नही सकता। न तो कंप्यूटर की क्लास्सेस लेने का मन कर रहा है और ना ही किसी काम में मेरा मन लग रहा है, बस दिमाग उस तारीख, समय और स्थान पर जाकर स्थिर हो जा रही है जहाँ मुझे अपनी मोहब्बत से मिलने जाना है और फ़िर सोचने लगता है कि आख़िर मैं उस शख्स से मिलने की बाद क्या कहूँगा? क्या बातें करूँगा? जो मेरे दिल में धडकनों की तरह हर पल उफनती रहती है, जिसके बिना मैं अपने जीवन की कल्पना तक नहीं कर सकता। आख़िर मैं उस शख्स से मिलने के बाद क्या-क्या बातें करूँगा? इसी सोच में मेरा दिन और मेरी रात गुजर रही थी। मेरे दिल की क्या हालत थी, मेरे दिल के अन्दर उस समय क्या कुछ घमासान मच रहा था, यह सिर्फ़ और सिर्फ़ मैं ही जानता था।
यह सब कुछ होना वाजिब ही था क्योंकि मैं उस शख्स से मिलने जाने वाला था जो एक तरह से मेरी जिन्दगी की मंजिल थी, जिसपर मेरी जिन्दगी की सारी खुशियाँ निर्भर थी, वह भी मेरी पहली और आखिरी मोहब्बत से यह मेरी पहली और शायद आखिरी व्यक्तिगत मुलाकात होगी ये मैंने कभी सोचा ही नहीं था। इसी सब उथलपुथल में कब वह दिन आ गया इसका मुझे आभास ही नही हुआ।
सुबह जल्दी ही उठकर मैं कंप्यूटर इंस्टिट्यूट गया, वहां मैंने अनमने ढंग से एक क्लास ली। इस दौरान मेरे दिल का हाल बेहाल था। बाकी रातों की तरह ही पिछली रात भी मैंने इसी उधेड़बुन में गुजारी की आख़िर उस शख्स से मिलने के बाद मैं उससे क्या बातें करूँगा? जिससे मिलने की तमन्ना शायद मेरे दिल में सदियों से दफ़न थी, जिसका पल भर का दीदार मेरे अंतर्मन में लाखों-करोड़ों की संख्या में खुशियों का आवेश भर देता था। आख़िर आज उससे मिलने के बाद मैं उससे बात करूँगा तो क्या? उससे मिलने को निकलने के बावजूद अभी तक मैं यह तय नहीं कर पाया था कि उससे किस तरह की बातें करूँगा? इसी सोच में न जाने कब मैं उस स्थान आर्शीवाद होटल, बिस्टुपुर पंहुच गया जहाँ मुझे बुलाया गया था।
मैं होटल के अन्दर गया और अपनी निगाहें चारो तरफ़ दौडाई मगर मुझे मेरी मोहब्बत नज़र नहीं आई, इसके बाद मैं होटल के मुख्य दरवाजे के ठीक सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया और फ़िर मेरी नज़रें दरवाजे पर जाकर टिक गई। कुछ ही सेकेण्ड हुए होंगे की मेरी मोहब्बत अपनी उसी सहेली के साथ मेरी नज़रों के सामने आकर खड़ी हो गई। यह दृश्य मेरी लिए रोमांचित कर देने जैसा था। आज वह शख्स मुझसे मुलाकात करने आई थी जो मेरे दिल में धड़कन बनकर धड़क रही है, जो मेरी सांसों में हरपल अपनी यादों का रंग उडेल रही है, जो मेरी जिन्दगी का पर्याय बन चुकी है, जिसके बिना मेरी जिन्दगी आधी-अधूरी है, जिसकी यादों ने मुझे जीना सिखाया है, जिसकी मोहब्बत में मैं दीवानेपन की सारी सीमा को लाँघ चुका हूँ। आज वही मेरे सामने, मुझसे मुलाकात करने, मेरे बुलाने पर आयी है।
उन दोनों को अचानक यूँ सामने खड़ा देख मैं अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और उन दोनों से सामने की कुर्सियों पर बैठने का निवेदन किया। उन दोनों के कुर्सी पर बैठने के बाद मैं उनके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया। इस दौरान मेरे चेहरे पर पसीने तर-बतर फ़ैल चुके थे, जबकि नवम्बर का सर्द माह चल रहा था।
मैं अभी कुर्सी पर ठीक से बैठा भी नही था कि मेरी मोहब्बत के एक सवाल 'क्या बात है? आपने मुझे क्यों बुलाया?' ने मेरे अंतर्मन को झकझोर कर रख दिया। इस एक सवाल ने मेरी मोहब्बत के भविष्य की पटकथा लिख डाली। इस सवाल ने मेरे उस उधेड़बुन को लगभग समाप्त ही कर दिया, जिससे मैं पिछले कई दिनों से परेशान था की मैं अपनी मोहब्बत से मिलने के बाद क्या बातें करूँगा? इस एक सवाल ने मेरी आने वाली जिन्दगी का रुख तय कर दिया।
मेरी मोहब्बत के इस सवाल का मैंने सहजता से जवाब देते हुए कहा 'कोई बात नही थी, बस मैं मानसिक रूप से बहुत ही परेशान था इसलिए आपका दीदार करना चाहता था।' मेरे इस जवाब को सुनकर उसने बड़े ही बेतुके अंदाज में कहा 'ठीक है, तब मैं चलती हूँ।' मैंने सर हिलाकर स्वीकृति भी दे दी और कहा 'ठीक है' अचानक ही हमारे बीच के संवाद में उसकी सहेली आ गयी और उसने कहा 'यह क्या हो रहा है? कुछ तो बात होगी जरुर जो आपने इसे मिलने को बुलाया, शायद आपदोनों को मुझसे कुछ परेशानी हो रही है, इसलिए मैं कुछ देर के लिए बाहर जा रही हूँ, आप दोनों बात कर लें।' इतना कहकर वो होटल से बाहर निकल गयी।
उसके बाहर चले जाने के बाद मेरी मोहब्बत ने फ़िर वही सवाल मुझसे पूछा 'क्या बात है? आपने मुझे क्यों बुलाया?' इस बार मेरा जवाब उसे नहीं मिला, मैं खामोशी से उसकी निगाहों को पढने की असफल कोशिश कर रहा था। वह कुछ पल शांत बैठी रही फ़िर मुझसे बोली, 'अच्छा तो मैं चलती हूँ।' मैंने मुस्कुराने का प्रयास किया और धीमे स्वर में उससे कहा 'ठीक है' यह सुनकर वह कुर्सी छोड़कर उठाने को ही थी की मैंने आवेश में आकर उससे कहा, 'तुमने किस रिश्ते के तहत मुझसे गुटखा खाने को मना किया?' मेरे इस अचानक पूछे गए सवाल पर वह गंभीर हो गयी। कुर्सी पर दुबारा बैठते हुए उसने कहा 'इंसानियत के नाते' इस तरह का जवाब सुनकर मैं अन्दर से पुरी तरह से टूट गया, मेरे दिल में बचे-खुचे जो अरमानों के ढेर थे, वे भी जबरदस्त धमाकों के साथ तत्क्षण ही बिखर गए। मेरे दिल में भयानक पीड़ा की अनुभूति हो रही थी, मेरा पूरा शरीर धधकते हुए ज्वालामुखी की तरह कांप रहा था, ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे अंदर ही अंदर ज्वालामुखी फट चुका है और उसके गर्म अंगारे मेरे पूरे शरीर में रक्त बनकर दौड़ रही है। क्या यही मेरी उस मोहब्बत का प्रतिफल था? जिसकी आग में मैं पिछले 6 वर्षों से स्वयं को जलाता आ रहा था। इस दौरान ना तो मैंने कभी उससे मुलाक़ात करने की ख्वाहिश की और ना ही कभी किसी प्रकार की कोई जबरदस्ती या बदतमीजी उसके साथ की। बस मैं अपनी अलग जिंदगी में उसकी यादों को अपने दिल में लिए जीने की कोशिश कर रहा था। मुझे भरोसा था की कभी न कभी मेरी मोहब्बत पर उसका पत्थर दिल जरुर पिघलेगा।
मुझे याद है वर्ष 1994 में जब मैं इंटर 1st year का स्टुडेंट था, उसी समय से मेरे दिल में उसकी तस्वीर समाई थी। मेरे घर के बगल में रहने वाली उस लड़की ने मेरे जीवन में एक नयी जिंदगी की तरह दस्तक दी। उसकी निगाहों में मैंने एक नयी जिंदगी का सवेरा महसूस किया। उस दौरान ना जाने मुझे क्या हो गया था कि हर वक्त उसके ख्यालों में खोया-खोया सा रहने लगा था। उसी वर्ष मैंने अपनी मोहब्बत का इकरार करने के लिए एक प्रेम-पत्र लिखकर उसे देने की असफल कोशिश भी की थी, मगर मेरे उस पत्र को उसने मुस्कुराते हुए लेने से इंकार कर दिया था और फ़िर दूसरे ही दिन अपनी सहेलियों के बीच मुझे बुलाकर 'हम आपको पसंद नहीं करते' तक कह दिया था। इसके बाद से मैंने उसके सामने तक जाना छोड़ दिया था। उसका सामना तक करने की हिम्मत मुझमें बची नहीं थी। मैं टूट चुका था मगर मेरे दिल में उसकी मोहब्बत दिन प्रतिदिन बदती ही रही। मैं उसकी मोहब्बत की तपिश में जलता हुआ उसके ख्यालों में रहगुजर करता हुआ जीवन के लम्हों को काटता रहा। इसी दौरान वर्ष 1997 में मैंने अपने घर से कुछ ही दूरी पर स्थित एक कंप्यूटर इंस्टिट्यूट में कंप्यूटर टीचर के रूप में कार्य करना आरम्भ कर दिया, उसी दौरान उसके पिताजी का प्रमोशन होने के कारण दिनांक 19.05.1998 को वह मेरे पड़ोस के घर से जगह बदलकर लगभग 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित दूसरे घर में चली गयी। इसके बाद तो मैं उसके पल भर के दीदार तक को तरसता रहा। दुर्गा पूजा, सरस्वती पूजा या किसी खास त्यौहार/पर्व के दौरान ही उसकी झलक कभी-कभार देख पता था। अक्सर रातों को मैं बेचैन होकर अकेला उसके घर की तरफ़ निकल जाता, जो मेरे घर से तक़रीबन 2 किलोमीटर दूर था। वहां आने-जाने के दौरान मैं उन राहों को सजदा करता रहता जिन पर उसके कदम पड़ते थे। मात्र उसकी एक झलक पाने के लिए मैं सुबह 4.30 बजे मोर्निंग वॉक के लिए भी निकलता और उसके घर के बगल से गुजरता, क्योंकि सुबह 5 बजे वह मानु दा के यहाँ टूशन पढने घर से निकलती थी। मैं शब्दों में उन एहसासों को नहीं उतार सकता की मुझे उस दौरान कितनी आत्मा-संतुष्टि मिलती थी। बीते 6 वर्षों (1994 से 2000 ) से मैं उसकी एक तरफा मोहब्बत में पागल-सा हो चुका था। इस दौरान मैंने अपने दिल में उसके प्यार की अग्नि जलाकर, उसके प्यार को ही अपनी जिंदगी मानकर, जीता रहा इस आस में कि कभी तो मेरी सच्ची मोहब्बत का मुझे सिला मिलेगा। इस दौरान मैंने दीवानेपन की सारी सीमाएं लाँघ दी थी, मैंने अपने दिल में दफ़न एक तरफा मोहब्बत को इबादत तक का रूप दे दिया था। अब तो मेरी मोहब्बत ने दिल से दिमाग तक का सफर पूरा कर लिया था। इन वर्षों के दौरान कई एक लम्हे आए, नया साल, उसका जन्मदिन, जब मेरे दिल में उसे शुभकामनायें देने की आरजू हुई, मगर मैंने अपने तड़पते-बिलखते ह्रदय को उस वक्त कैसे शांत किया, यह केवल मैं ही जानता हूँ। यह अलग बात है की मैं अपनी मोहब्बत का सालगिरह हर वर्ष 6 फरवरी को कंप्यूटर इंस्टिट्यूट में मनाता था और ईश्वर से उसके सुखमय जीवन की कामना करता था। इस दौरान मैं स्वयं ही केक काटता और खाता था तथा मेरे इस पागलपन के गवाह कंप्यूटर इंस्टिट्यूट के संचालक श्री किशोर कुमार यादव और कभी-कभी मेरा दोस्त लिजु जोसेफ भी बनते थे। इस दौरान इतना कुछ हुआ कि जो भी लोग मुझे जानते थे चाहे वे मेरे मित्र हों, स्टुडेंट हों या कोई और वे मेरी मोहब्बत को भी मेरे पागलपन की वजह से जान लेते थे। मैंने कभी किसी को अपनी मोहब्बत के बारे में नहीं बताया मगर ना जाने क्यूं जब भी कोई नया मित्र बनता या नया स्टुडेंट आता तो मेरे नाम को सुनने के बाद स्वतः ही मेरी मोहब्बत का नाम ले लेता।
इस दौरान मेरे जीवन में हांलाकि कई एक लड़कियों ने दस्तक दी, यह जानने के बाद भी कि मैं किसी और को बेइंतहा मोहब्बत करता हूँ, उन सबों ने अपने-अपने तरीकों से मुझे अपनी मोहब्बत का एहसास कराने की कोशिश भी की मगर मैं तो किसी और की यादों में बेसुध होकर पड़ा रहा। मुझे उस मोहब्बत से फुर्सत ही कहाँ मिली जो मैं किसी और के बारे मैं कुछ भी सोच सकता।
इस दौरान मेरे जीवन में हांलाकि कई एक लड़कियों ने दस्तक दी, यह जानने के बाद भी कि मैं किसी और को बेइंतहा मोहब्बत करता हूँ, उन सबों ने अपने-अपने तरीकों से मुझे अपनी मोहब्बत का एहसास कराने की कोशिश भी की मगर मैं तो किसी और की यादों में बेसुध होकर पड़ा रहा। मुझे उस मोहब्बत से फुर्सत ही कहाँ मिली जो मैं किसी और के बारे मैं कुछ भी सोच सकता।
पहले की ही तरह सब कुछ चल रहा था कि अचानक 4 नवम्बर, 2000 को उसकी सहेली कंप्यूटर इंस्टिट्यूट आई और मुझसे बोली 'उसने आपको गुटखा खाने से मना किया है' इतना कहकर वो चली गई मगर अपने पीछे छोड़ गई एक सवाल, जिसका जवाब मुझे किसी भी सूरत में चाहिए था। वह सवाल था, आख़िर किस रिश्ते के तहत उसने मुझसे गुटखा खाने से मना किया है? मैं आख़िर उसका कौन हूँ? मेरे दिल में आग लग चुकी थी।
यह पूरी तरह से सही बात थी कि उस समय मैं रोजाना ही 15 से 20 गुटखा खाया करता था इसी वजह से मुझे अक्सर ही शारीरिक परेशानियों का सामना करना पड़ता था। यह बात मेरे सभी दोस्तों को पता थी और सभी मुझे गुटखा खाने से मना भी करते रहते थे मगर मैं लापरवाह बनकर सबों की बातें अनसुनी करता चला आ रहा था। मगर आज मैं यह बात सोचने पर विवश था की मेरे गुटखा खाने से, मुझे शारीरिक परेशानी होने से, उस शख्स को क्या मतलब? जिसके दिल में मेरे प्रति नफरतों के सिवा कुछ भी नहीं। यह सवाल मेरे अंतर्मन को बार-बार कचोट रहा था जिसका जवाब मेरी मोहब्बत के सिवा और किसी के पास नही था। मेरी मोहब्बत, पहली मोहब्बत, जो मेरी जिन्दगी का आइना थी और यह भी कटु सत्य था की वह मुझसे उतना ही नफ़रत करती थी जितना की मैं उससे मोहब्बत, तो फ़िर आख़िर क्या वजह थी जो उसने मुझे गुटखा खाने से मना किया, क्या कहीं उसके दिल में भी मेरे लिए कोई जगह ...................? यही वह सवाल था जिसका जवाब हासिल करने के लिए मैंने उसकी सहेली से मेरी मोहब्बत को मिलाने की विनती की थी और फ़िर मुलाकात की तारीख का पता चलते ही मेरे दिल में यही बात बार-बार उठने लगा की मैं उससे मिलने के बाद क्या बात करूँगा, क्या नहीं करूँगा? कभी सोचता कि उससे मिलने पर अपने दिल में दफ़न उसकी मोहब्बत के हर पैगाम को उसे सुना दूंगा, तो कभी सोचता कि ऐसा नहीं करूँगा, अपनी बीती जिन्दगी के किसी फ़साने का जिक्र तक उससे नहीं करूँगा, सिर्फ़ मुलाकात कर, उसका दीदार कर, कुछ बातें इधर-उधर की करने के बाद वापस आ जाऊंगा।
इसी उधेड़बुन में घिरकर अंततः मैं अपनी मोहब्बत से मिलने आ पंहुचा था कि, उसके द्बारा पूछे गए पहले ही सवाल 'क्या बात है?, आपने मुझे क्यों बुलाया है?' ने मेरी मोहब्बत के भविष्य की दिशा और दशा तय कर दी। इस एक सवाल ने मेरे उस उधेड़बुन को भी समाप्त कर दिया, जो पिछले कई दिनों से मेरे मन को कचोट रहा था। तत्क्षण ही मैंने स्वयं पर नियंत्रण रखते हुए अपनी तरफ़ से मामले को समेटने का प्रयास किया, मगर जब वह कुर्सी छोड़कर उठने को थी, मेरे दिल में दफ़न उसकी मोहब्बत ने आक्रोशित होकर आखिरकार उससे पूछ ही लिया, 'आपने किस रिश्ते के तहत मुझे गुटखा खाने से मना किया था?' मेरे इस सवाल का जवाब देते हुए उसने जब 'इंसानियत के नाते' कहा तो फ़िर मैं स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख सका और अनियंत्रित होकर कंपकंपाते होठों से मैंने उससे कहा 'यदि आपको इंसानियत ही दिखानी है तो अपने घर की पीछे की बस्ती में जहाँ बहुत सारे लूल्हे - लंगड़े रहते हैं, जिनका कोई अपना नहीं है, उनपर इंसानियत दिखाएँ, मुझ पर नहीं, मेरे माता-पिता, भाई-बहन हैं' इतना कहकर मैं कुछ क्षण शांत रहा फ़िर मैंने कहना शुरू किया, 'आपका मुझपर कोई हक़ नहीं, क्यूंकि हक़ वहां बनता है जहाँ मोहब्बत होती है। मेरा हक़ बाकायदा आपके ऊपर है, क्योंकि मैं आपसे मोहब्बत करता हूँ।' मैंने यह सारी बातें एक स्वर में ही उससे कह डाली। मेरी बातों को सुनकर वह खामोश ही रही। कुछ देर बाद वह बोली, 'एक बात कहूँ?' मैंने उसकी निगाहों में निगाहें डालते हुए कहा, 'हाँ बोलो!' उसने कहा, 'आप मुझे भूल जाइए' मैंने कहा, 'क्या करूँ? भुला ही नहीं पता हूँ'। यह सुनकर वह बोली, 'आप शादी कर लीजिये' कुछ देर खामोश रहने के बाद मैंने कहा, 'वो भी करके देख लूँगा'। हमारे बीच बातचीत चल ही रही थी की उसकी सहेली वापस आ गई और कुर्सी पर बैठते हुए बोली, 'क्या बात है? जब तक मैं थी आप दोनों के मुंह खुल ही नहीं रहे थे और अभी मैं दूर से देखती आ रही हूँ कि आप दोनों के मुंह तो बंद ही नहीं हो रहे'। इतना सुनना था की मैं और मेरी मोहब्बत दोनों हंसने लगे। इसके बाद मैंने अपनी मोहब्बत से पूछा, 'मुझमे क्या कमी है, जो तुम मुझे नापसंद करती हो?' कुछ देर शांत रहने के बाद उसने कहा, 'आप बिहारी हैं!'। इसके बाद उसकी सहेली ने मुझसे कहा, 'आप इनसे दोस्ती क्यों नहीं कर लेते हैं?, इसको आपसे दोस्ती करने में कोई एतराज नही' इस पर मैंने कहा, 'नहीं मैं मोहब्बत के रिश्ते को दोस्ती में परिवर्तित नहीं कर सकता' इसके बाद हमलोगों ने नाश्ता किया और फ़िर मेरी मोहब्बत अपनी सहेली के साथ होटल से निकल गई।
उन दोनों के होटल से वापस जाने के बाद मैं होटल की कुर्सी पर असमजंस की हालत में बैठा रहा और यही सोचता रहा की आख़िर मेरी मोहब्बत अधूरी क्यूं रह गई? आज की मुलाकात ने मुझे अपनी मोहब्बत की स्थिति का स्पष्ट आभास करा दिया। मेरी मोहब्बत ने अस्पष्ट रूप से ही सही लेकिन मुझे मेरी मोहब्बत का अंजाम मुझे बता दिया। उसकी मोहब्बत में बिताये हुए लम्हे अब मुझे बेमानी प्रतीत हो रहे थे। आज मैं पूरी तरह से टूट कर बिखर गया। उसने तो मेरा वह इंतजार भी समाप्त कर दिया जिसको आधार मानकर मैं जीवन के लम्हे बीता रहा था। मैं नहीं जानता मेरी मोहब्बत मैं क्या खामियां थी, बस इतना जानता हूँ कि मेरे दिल से उसकी मोहब्बत कभी ख़त्म नहीं होगी, हाँ मेरी अधूरी एकतरफा मोहब्बत मुझे ताउम्र दम तोड़ती नजर जरूर आएगी।
===================समाप्त===
30 अप्रैल 2024, को मेरी शादी के लगभग 22 वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन मेरे दिल की धडकनों पर आज भी उसकी मोहब्बत काबिज है, बदलते वक्त में पहले और आज के दौरान मेरी मोहब्बत में कमी की बजाय बढ़ोतरी ही हुई है, हाँ फर्क इतना जरुर हुआ कि पहले उसे पाने की, उसका दीदार करने की अभिलाषा रहती थी, मगर अब वह अभिलाषा भी नहीं रही। जन्म जन्मांतर की बात तो बहुत दूर की है, मैं तो बस रोजाना ही दिल से अपनी उस मोहब्बत को दुआएं देता रहता हूँ, खुशहाल जीवन की। मुझे पता नहीं ये मोहब्बत कैसी है मेरी, ना जाने क्यूं आज के इस ज़माने में मैं इतिहास की तरह जी रहा हूँ। बस मुझे इतना यकीं हैं समूचा जीवन उसकी मोहब्बत की तपिश में मैं जलता जरूर रहूँगा।
अब ना जाने क्यों उसके दीदार से डरता हूँ? ना जाने क्यूं अब मुझे खुदपर भरोसा ही नहीं रहा, पता नहीं उसे देखने के बाद मैं ख़ुद को संभल नहीं पायूं। यही कारण है कि उसके जमशेदपुर आने की खबर का पता चलते ही मैं बेचैन हो जाता हूँ। मैं अपने-आप से ही छुपने लगता हूँ। कोई नहीं, कहीं कोई नहीं जो मुझे इस दुविधा से उबार सके, शायद यही मेरी सच्ची मोहब्बत का सिला है, जिन्दगी है पास मगर फ़िर भी जीने की है तलाश। वर्तमान में मैं दोहरा जीवन जीने को बाध्य हूँ। जो दिखता हूँ वो अब मैं वह हूँ ही नहीं और जो मैं अब हूँ वो अब मैं दिखता ही नहीं।
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हे परमपिता परमेश्वर, उसे हर वो खुशी देना जिसके खवाब वो देखती हो।
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