शुक्रवार, 4 जून 2010

मेरी एकतरफा मोहब्बत और तुम्हारी यादें.

दिनांक 31 अगस्त 2024 को अपडेटेड


  • 1994 - आत्महत्या की मेरी नाकाम कोशिश के बाद जब मेरे दिल की धडकनों में तुम्हारी यादों ने एक नए जीवन के रूप में दस्तक दी। तुन्हारे निगाहों में ना जाने क्यों मुझे मेरे जीवन की डोर दिखाई दी।
  • 1994 - "हम आपको लाइक नहीं करते" ये शब्द खुद तुम्हीं ने अपनी जुबान से हमें कहा था, जिसे हम बेइंतहा मोहब्बत करते थे। एक वाक्य ने मेरे अरमानों को तार तार कर दिया। मैं तो जीते जी ही मर चूका था।
  • 1994 - एक तेरी तस्वीर जिसे देख देखकर मैं जीने की कोशिश कर रहा था, वो भी तुमने मुझसे छीन ने। क्या मिला तुम्हे मेरा सुकून छिनकर.
  • 1995 - टूटे हुए दिल और टूटे हुए दिल के अरमानों के साथ किसी तरह से जीने की कोशिश कर रहे थे। तुम्हें चाहकर भी नहीं भुला पा रहे थे। तुम्हारी यादें को अपने जीने का सामान बना लिया था.
  • 1996 - 23 जनवरी, को जब भाभी के घर तुम्हारी सहेलियों के साथ तुमसे आमना सामना हुआ और मैंने अपने हाथ पर लिखे हुए तुम्हारे नाम को काट दिया। एक बार फिर से तुम्हे भूलने की एक और नाकाम किशिश की.
  • 1997 - तुम्हारे बिना दुर्गा पूजा का कोई महत्व ही नहीं रहा, तुम दुर्गा पूजा में जमशेदपुर से बाहर गई हुई थी और मैं यहाँ दुर्गा पूजा के पुरे सप्ताह तुम्हारे दीदार को तड़पता रहा।
  • 1998 - 19 मई, जब तुम मेरे पड़ोस के घर को छोड़कर हमेशा हमेशा के लिए अपने नए घर को जा रही थी खून के आंसू रोया तुमसे बिछड़कर। दिल के अरमानों को दिल में ही तड़पते अपने दिल की नज़रों से महसूस किया था मैंने, तुम्हे तो इसका आभास भी नहीं।
  • 1999 - 7 मार्च, उस घर को छोड़ मैं भी चला गया जहाँ मुझे तुम्हारी मोहब्बत ने एक नयी जिंदगी दी। अपने साथ तुम्हारी कई यादों को भी एक नए घर में लेता आया।
  • 1999 -दुर्गा पूजा की अष्टमी को मैंने लाल बिल्डिंग दुर्गा पूजा पंडाल के सामने तुम्हारे साथ कुछ अच्छा व्यवहार नहीं किया था। इस दिन पता नहीं मुझे क्या हो गया था मैं अपने आप में ही नहीं था। मुझे माफ़ करना.
  • 2000 - 16 जून, अनिल चौधरी के पापा का निधन कोलकता में मेरी नज़रों के सामने हुआ। मैंने उनके मौत का पल पल का एहसास किया। तुम्हारी यादों ने आज मुझे बेजार कर दिया।
  • 2000 - अक्टूबर, मैं जमशेदपुर छोड़कर बरोनी चला गया मगर तुम्हें कैसें बताऊँ एक दिन भी ऐसा नहीं बिता कि तुम्हारी यादों ने मेरी निगाहों से अश्क नहीं बहाया हो। वहां जाकर तो मैं और भी बेचैन हो गया। मेरा जीना मुश्किल लग रहा था। तुम मुझे इतना परेशां कर रही थी कि मुझे वापस जमशेदपुर कुछ ही दिनों के बाद आना पड़ा।
  • 2000 - 4 नवम्बर, आज तुमने मुझे अपनी सहेली के द्वारा गुटखा खाने से मना किया। ये मेरे लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं था क्यूंकि जिसे मेरी मोहब्बत से परहेज था, जिसके दिल में मेरे लिए कोई जगह ही नहीं थी तो आखिर क्यों फिर वो मेरे व्यक्तिगत जीवन में दखल देने का काम कर रही थी। इसका जवाब जानने के लिए मैंने तुम्हारी उस सहेली से तुम्हारी मुलाक़ात कराने को कहा। मैं बेचैन हो उठा था। ये करके तुमने मुझे इतना परेशां कर दिया था कि मेरा जीना दुश्वार हो गया था। मैं अपने टूटे हुए दिल में टूटे हुए अरमानों के साथ सिहर गया था।
  • 2000 - 29 नवम्बर, अपनी मोहब्बत से मेरी पहली और शायद आखिरी व्यक्तिगत मुलाक़ात अंततः हुई। अपने आप को काफी बांधकर मैं वहां गया था और कुछ ना नुकर के बाद कुछ देर इधर उधर की बातें हुई। मैं पूरे तैयारी के साथ वहां गया था। अपने टूटे हुए दिल और टूटे हुए अरमानों के साथ मैंने अपनी मोहब्बत से सम्बंधित कोई बात तक नहीं की। इसी दिन तुमने मुझे खुद को भूलने की बात कही, तुमने कहा कि "आप शादी कर लीजिये मुझे भूल जाइये"। शायद तुम्हारी निगाहों में शादी करके कोई दिल के रिश्तों को आसानी से भूला सकता हो।
  • 2001 - 20 मई, एक बार फिर से मैंने आत्महत्या की कोशिश करनी चाही मगर मेरी निगाहों के सामने तुम्हारी तस्वीर आ गयी, ना जाने क्यों दिल में बस तुमसे एक अंतिम मुलाकात की ख्वाहिश उठी। इस मुलाकात के बाद जिन्दगी छोड़ देने का मैंने संकल्प ले लिया। ये मेरा अंतिम फैसला था। इसकी जानकारी मैंने सिर्फ कृष्णा दीदी को दी.
  • 2001 - 22 मई, मैंने तुम्हारी सहेली से बस एक अंतिम मुलाकात का मेसेज भेजवाया, लेकिन जवाब नहीं के रूप में मिला। मुझे पता चला कि मेरे मिलने के अनुरोध पर तुम काफी गुस्से में कह रही थी "अब क्यों मिलना चाहता है वो मुझसे?" मैं एक बार फिर से टूट गया। तुमसे मुलाकात एक अंतिम मुलाकात की ख्वाहिश मेरी अधूरी ही रह गयी और मैं फिर से एक जिन्दा लाश बनकर जीने को विवश हो गया।
  • 2001 - 10 जून, आज मुझे तुम्हारे B.Com फ़ाइनल इयर का रिजल्ट पता चला। मुझे पता चला कि तुम 2nd क्लास से पास हो गई हो। तुम्हे नहीं पता आज मैं कितना खुश हूँ। इश्वर तुम्हे खुशहाल जिन्दगी दे.
  • 2001 - 29 अक्टूबर, आज तुम इंस्टिट्यूट आई और दशमी के उपलक्ष्य में मुझे, किशोर भैया, लिजु और संजीव को विजया के लिए खुद अपने घर बुलाई और हमलोग विजया के लिए तुम्हारे घर गए। ये पहली बार हुआ कि हमलोग जिस रूम में बैठे थे तुम भी उसी रूम में हमारे साथ बैठी रही, अन्यथा इससे पहले कई बार मैं तुम्हारे घर गया था कभी पूजा करके प्रसाद देने के बहाने कभी कुछ और के बहाने मगर हर बार येही होता था कि मैं जिस रूम में बैठता तुम भूल से भी उस रूम में दाखिल तक नहीं होती। तेरे दीदार के लिए मैं बहाने बनाकर तुम्हारे घर गया करता मगर मेरी निगाहें तुम्हारे दीदार को प्यासी की प्यासी ही रह जाती थी। आज वाकई सब कुछ बदला बदला सा था। इश्वर का शुक्रिया.
  • 2001 - 2 नवम्बर, आज मुझे तुमने अपनी सहेली से यह मेसेज भिजवाया कि तुम मुझसे मिलना चाहती है, जिसे मैंने ठुकरा दिया। मेरी निगाहों में कुछ माह पहले ही मेरे मुलाकात के पेशकश को तुम्हारे द्वारा ठुकरा दिए जाने का दृश्य सामने आ गया और साथ ही वो कमेन्ट "अब क्यूं मिलना चाहता है वो मुझसे" जो तुमने मेरे उपर की थी, उसकी याद ताजा हो गयी। यही कारन था कि मैंने तुम्हारे मुलाकात करने के अनुरोध को ठुकरा दिया। मैंने ठीक किया या गलत इसका मुझे कोई इल्म नहीं लेकिन मैं इतना जरुर जनता हूँ कि अब मुझमें तुम्हारा सामना करने की हिम्मत नहीं। मैं टूट चूका हूँ, अन्दर से पूरी तरह से बिखर चूका हूँ। शायद तुम्हारा सामना होते ही मैं अपने आप से बाहर ना हो जाऊं इसका मुझे डर सता रहा था।
  • 2001 - 19 नवम्बर, आज मौसमी की शादी कदमा के किसी क्लब में हो रही है। मुझे ये जानकारी मिली कि तुम्हारे घर से तुम्हारी बड़ी बहन आ रही है और शायद तुम नहीं आएगी इसलिए मैंने शादी में जाने का निर्णय लिया। मैं ऐसे किसी भी जगह जाने से परहेज करता था जहाँ तुम्हे भी पहुँचाना हो। मगर आज मुझे जो जानकारी मिली थी उसके अनुसार तुम मोसमी की शादी में नहीं जाने वाली थी इसलिए मैं वहां गया था। इस शादी में मेरे अलावे मेरे कई दोस्त भी पहुंचे थे। मैं क्लब के अन्दर बैठा ही था कि कुछ देर बाद मैंने देखा कि तुम क्लब के अंदर आ रही है। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि ये कैसे हो गया। कुछ ही देर बाद मुझे कृष्णा दीदी ने आवाज देकर अपने पास बुलाया मैंने देखा कि कृष्णा दीदी और तुम दोनों आस पास ही कुर्सी पर बैठे हुए हो। मैं सहमते हुए उनके सामने पहुंचा तो कृष्णा दीदी ने पुछा क्या बात है जब ये मिलने को बुलाई थी तो तुमने मना क्यूं कर दिया था। मैंने इसका कोई उत्तर नहीं दिया। कृष्णा दीदी ने अपने बगल की खली कुर्सी पर मुझे बैठने को कहा, मैं बैठ गया। इसके बाद कृष्णा दीदी ने मेरे हाथों में तुम्हारा हाथ देते हुए कहा "लो और तुम्हे क्या चाहिए" पहली बार जिंदगी में मैंने तुम्हारे हाथों का स्पर्श किया और फिर लगभग कुछ ही सेकेण्ड के बाद मैंने तुम्हारे हाथों को अपने हाथों से हटाते हुए ये कहा कि "मुझे तो जीवन भर का साथ चाहिए" और फिर मैं वहां से दूर चला गया और ग्रुप बनाकर अपने दोस्तों के साथ बैठ गया। कुछ देर बाद कृष्णा दीदी अपने साथ तुम्हे लेकर हमलोगों के पास आई और वहां बैठ गयी। तभी तुम्हे न जाने क्या हुआ और तुम जोर जोर से रूक रूककर खांसने लगी, मैं बेतहासा दौड़ा पानी की तलाश में, मुझे क्या हुआ ये मैं नहीं जानता मगर पहली बार ऐसा लगा कि तुम्हे मेरी जरुरत है। मैं भागता हुआ क्लब से बाहर रखे पानी के ड्रम से एक ग्लास पानी लेकर अन्दर आया, ये देखकर मेरे सारे के सारे दोस्त और कृष्णा दीदी भी जानबूझकर खांसने लगी, मैंने सबों को सॉरी बोलते हुए पानी के उस ग्लास को तुम्हारे हाथों में रख दिया। मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकता उस समय मुझे कितनी आत्मसंतुष्टि मिली थी कारन कि मैंने तुम्हारे लिए कुछ तो किया था। कुछ देर के बाद कृष्णा दीदी ने कहा कि चलो हमलोग एक एक कर गाना गातें है, एक एक कर के सभी गाना गाने लगें जब मेरी बारी आई तो मैंने, "दो बातें हो सकती हैं सनम तेरे इनकार की.........." गाना गाने लगा और कुछ देर के बाद मेरा गला भर आया और मैं रोने भी लगा। फिर मैंने एक गुस्ताखी की मैंने अपने दोस्त लिजु के शर्ट के पीछे "I Miss U" पेन से लिख दिया क्यूंकि मुझे पता था कि मेरी मोहब्बत को छोड़ने लिजु ही जायेगा और मैं अमर भैया के साथ गाड़ी पर बैठकर घर वापस आ गया। मेरी इस खता पर लीजे मुझसे बहुत ही नाराज़ भी हुआ था। सॉरी लिजु, मुझे माफ़ करना।
  • 2002 - 14 मार्च, आज मैंने तुम्हारे नाम कुछ लिखकर तुम्हारी सहेली को दिया तुम्हे देने के लिए, इसमें तुम्हारे ही घर से सम्बंधित कुछ जानकारी थी जो मुझे लगा कि तुम्हे मालूम होनी चाहिए थी इसलिए मैंने लिखकर इसे तुम्हे भेजा।
  • 2002 - 22 मार्च, अपनी सहेली के द्वारा तुमने मुझसे मुलाकात की ख्वाहिश की जिसे मैंने ठुकरा दिया। मुझे माफ़ करना, अब शायद मुझमें तुम्हारा सामना करने की हिम्मत ही नहीं बची।
  • 2002 - 2 अप्रैल, आज मुझे तुम्हारी बड़ी बहन से ये पता चला कि बीते कल (1 अप्रैल 2002) को जब मैं पूजा करके वापसी के क्रम में आपके घर प्रसाद देने गया और कालबेल बजाया तो दरवाजे तक पहुँच कर भी आपने दरवाजा नहीं खोला और दुबारा अंदर जाकर अपनी माँ से बोल दिया कि माँ देखो कोई बाहर आया है। मुझे तो पहले से ही जानकारी थी कि आपके दिल में मेरे प्रति नफ़रत कैद है मगर इतनी नफरत कैद है इसकी जानकारी मुझे नहीं थी।
  • 2002 - 4 अप्रैल, आज मैंने अंतिम बार अपने दिल के भावनाओं को शब्दों में उतार कर तुम्हें देने को 3 अलग अलग पत्र तुम्हारी सहेली को दिए। मैं आज तक नहीं जानता वे पत्र तुम तक पहुंचे भी या नहीं। मैं तो बस इतना जानता हूँ कि मैंने प्यार किया था एक ऐसी लड़की से जिसे मेरी मोहब्बत से कोई सरोकार नहीं था, मैंने पल पल उस सख्स के इंतज़ार में गुजार दिया जिसके दिल में मेरी मोहब्बत के लिए शायद कोई जगह भी नहीं थी, मैंने अपना जीवन उसकी निगाहों में देखने का गुनाह किया था जिसके मन में मेरे लिए सिर्फ और सिर्फ नफ़रत कैद थी।
  • 2002 - 30 अप्रैल, आज मेरा विवाह होने वाला है। पूजा करके प्रसाद देने के बहाने तुम्हारे घर के दरवाजे तक पहुंचा, मंशा थी तुम्हारे दीदार की, तुमसे दो शब्द बातें करने की मगर शायद मेरे इश्वर (तुम्हें) ये मंजूर नहीं था।
  • 2002 - 2 मई, आज मेरी शादी का रिसेप्सन है। मुझे कम उम्मीद थी कि तुम आयोगी, मगर मेरी उम्मीद धरी की धरी रह गयी और तुम मेरे रिसेप्सन में आये, इसके लिए तुम्हारा धन्यवाद. तुमने मेरी पत्नी के बारे में मुझे कुछ कहा भी "बहुत सुन्दर पत्नी मिली है" मैं कुछ जवाब नहीं दे पाया। क्या सुन्दरता से अंतर्मन प्रभावित होता है? ये शायद तुम नहीं समझ सकती। मैंने कृष्णा दीदी और तुम्हारी दीदी के सामने तुम्हारे चरण छुए, क्यूं ये शायद तुम इस जन्म में समझ नहीं सकती। आज तक मैं तुमसे अपनी मोहब्बत का हक मांग रहा था, तुम नहीं समझ पा रही थी, तुमने राधा का हक मुझे तो दिया नहीं कम से कम मीरा का हक तो मुझे दे दो।
  • 2003 - दिसम्बर, आज तुम्हारी शादी के रिसेप्सन में मैं अपनी पत्नी के साथ गया, विवाह के जोड़े में तुम बहुत सुंदर दिख रही थे। मैं कुछ भी लिख नहीं सकता। इश्वर तुम्हारे वैवाहिक जीवन खुशहाल रखे।
  • 2004 - 18 अगस्त, आज मुझे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है। मैं खुश हूँ कि नोर्मल डिलीवरी हुई। तुम्हारी याद आ रही है। कहाँ हो, कैसी हो?
  • 2004 - दिसम्बर, जीना बेहाल हो गया है, मैं क्या से क्या हो गया हूँ। मेरी जिन्दगी बद से बदतर हो रही है।
  • 2005 - मार्च, कुछ भी समझ से परे है। क्या हो रहा है? इश्वर क्या चाहता है? मेरा जीवन क्या से क्या हो रहा है? तुम कहाँ हो? इश्वर तुम्हे खुश रखे।
  • 2006 - 20 जून, आज मैं दुर्गापुर आया हूँ और यहाँ मैंने परमानेंट पोस्ट पर सहायक के रूप में ज्वाइन कर लिया है। तुम्हे मिस कर रहा हूँ। कैसी हो, तुम्हारी कोई खबर ही नहीं, खुश रहो जहाँ भी रहो। तुम्हारे बिना जीवन सुना सुना लग रहा है। तुम खुश हो बस येही दिल का अरमान है।
  • 2006 : 2010 - कुछ भी तो नहीं बदला, आज भी ना जाने क्यूं लगता है जैसे तुम पास ही तो हो निगाहों के निगाहें बंद भी रखता हूँ तो भी तुम्हे करीब पाता हूँ अपनी सांसों के। क्या मोहब्बत को भुला पाना इतना आसान है जैसा कि तुम समझती हो। क्या मैंने कोई गुनाह किया था जिसे मैं भूल जाऊं, मैंने तो सब कुछ तुम्हारे ऊपर निछावर कर दिया, अपना बिता कल अपना आने वाला कल और अपना वर्तमानं। तुम्हारे दीदार की अब कोई अभिलाषा नहीं। तड़पना तो शायद मेरी किस्मत में ही लिखा है। मैं कल भी तड़प रहा था, मैं आज भी तड़प रहा हूँ और मैं कल भी तड़पता ही रहूँगा। तुम मुझे समझ ही नहीं सकी, मेरे जज्बातों को समझ ही नहीं सकी, इसका मुझे ताउम्र दुःख रहेगा। तुम्हारे दिल में मेरी भावनाओं की कोई क़द्र ही नहीं, ना बीते कल थी, ना आज है और ना ही कल को रहेगी, ये मैं जानता हूँ बावजूद इसके आज भी मेरे दिल में तुम्हारी वो मोहब्बत जिन्दा है। फर्क सिर्फ इतना है मैं अब पहले की तरह तुम्हे याद करके खुल के रो नहीं सकता, तुम्हारे लिए दो शब्द अब अपनी डायरी में लिख नहीं सकता। जमाना, समाज क्या कहेगा? एक बात कहूँगा उन सबके लिए जो किसी को सच्ची मोहब्बत करतें हैं, यदि उन्हें अपनी मोहब्बत का साथ जीवन में नहीं मिले तो भूलकर भी किसी और से शादी करके अपना और अपनी पारिवारिक जिन्दगी को बर्बाद करने की गलती ना करे। मैं तो दोहरी जिंदगी जीने को विवश हूँ। क्यूं मेरे साथ ये सब हुआ ये मैं नहीं जानता, तुम्हारी इसमें कोई गलती मैं नहीं देता। मैं मजबूर कल भी था, आज भी हूँ और आजीवन रहूँगा, बस इतना मैं जानता हूँ। तुम जहाँ रहो खुश रहो, इश्वर से मैं बस यही दुआ करता हूँ.
  • मार्च 2014 - मेरे हाथ एक निगेटिव लगी, देखने पर पता ही नहीं चल रहा था कि किसकी तस्वीर है। पिछले दिनों ही इसे साफ करवाया, तस्वीर देखने पर मैं वर्ष 1995 के समय में वापस चला गया जब यह फोटो मेरे आंखों के सामने आयी थी। यह तेरी ही तस्वीर है जिसमें तुम नार्मल ड्रेस में अपने घर के पलंग पर बैठी हुई हो और किसी के द्वारा फोटो लेने पर तुम अपने ही हाथों से अपने चेहरे को ढंकने की नाकाम कोशिश कर रही हो। यह तस्वीर मेरे हाथों के सामने है और मैं अपने आपको लगभग 20 वर्ष पहले ले जा चुका हॅूं। वो सारे दिन, वो सारी रातें, वो बेकरारी के लमहें वो तेरी तस्वीर रखने की खता-सजा जो मैंने पायी सब कुछ मेरे आंखों के सामने परत दर परत के आ जा रही है। सिर्फ तुम्हारी एक फोटो अपने पास वो भी ग्रुप फोटो, रखने की बहुत बडी कीमत मैंने चुकाई थी वर्ष 1994 में और आज जबकि वर्ष 2014 चल रहा है मेरे कम्प्युटर में तुम्‍हारी लगभग 20 पुरानी से लेकर ताजा फोटो भरी पडी है जिसे लगभग रोजाना ही एक बार मैं अपने आंखों से निहार लेता हॅूं।  तुम्हारा दीदार शायद अब संभव नहीं लेकिन मुझे तो कभी ऐसा महसूस ही नहीं हुआ पिछले 20 वर्षों में कि तुम मुझसे दूर हो । ईश्वर तुम्हें खुश रखे।
  • अगस्‍त 2019 - तुम्‍हारी याद बहुत आ रही है। 
  • 31.08.2024 - तुमसे लगभग 21 वर्षो के बाद मुलाक़ात हुई. ईश्वर का ह्रदय से आभार. जीवन से अब कुछ की अभिलाषा नहीं बची. 

मेरा जीवन और भूली बिसरी यादें.

3 मार्च 1978 को मेरा जन्म जमशेदपुर में हुआ। मेरे पापा टाटा स्टील में परमानेंट थे। मेरी माँ हाउस वाइफ थी। पिताजी टाटा स्टील के वर्कर कम एक समाजसेवक ज्यादा थे। मेरे जन्म से पहले मेरे माता पिता दोनों ही गायत्री युग निर्माण योजना से संस्थापक पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी से और उनकी संस्था से जुड़े हुए थे और वे दोनों ही श्री आचार्य जी से सत्संग मण्डली में भजन आदि के कार्यक्रम करते थे। मेरे जन्म के बाद मेरे माता पिता दोनों ही पारिवारिक रूप से अपना जीवन यापन करने लगे। बागबेरा रेलवे कालोनी, लाल बिल्डिंग जो कि टाटानगर रेलवे स्टेशन से महज 2 किलो मीटर की दूरी पर स्थित है, वहां मेरी परवरिश एक झोपडी नुमा मकान में हुई। रेलवे की जमीन पर अतिक्रमण कर यहाँ मेरे पापा ने कुछ घर बनाए थे जिसमें हमलोग रह रहे थे और साथ ही साथ कुछ घरों को भाड़े पर लगाया गया था। मैंने अपना बचपन और जवानी दोनों इसी घर में बिताया।
इस घर के आस पास रेलवे के घर थे जिसमें रेलवे में काम करने वाले कर्मचारी रहते थे। आस पास के लोगों से हमारा ताल्लुक ना ही के बराबर था। बचपन से लेकर जवानी तक पड़ोसियों से कोई सम्बन्ध नहीं के बराबर रहा। जमशेदपुर में हमारे कई अपने सगे रिश्तेदार रहते थे, मेरी पापा के छोटे भाई अपने परिवार के साथ ही जमशेदपुर में ही रह रहे थे, मेरी पापा के बड़े भाई के बड़े बेटे भी अपने परिवार के साथ ही जमशेदपुर में ही रह रहे थे लेकिन आज तक इनसे ना जाने क्यूं रिश्तेदारी नहीं बन पाई। कभी मुझे लगा ही नहीं कि हमारे अपने खून के रिश्तेदार भी यहाँ रहते हैं। कभी मैं अंकल/चाचा शब्द के मर्म का एहसास नहीं कर पाया। कारन जो कुछ भी हो मगर मैं तरसता ही रहा अपने रिश्ते नातों को।
जब से मैंने होश संभाला अपने घर में एक बुजुर्ग को कई कठोर काम करते पाया जो इतने उम्र वाले लोग कर ही नहीं सकते। मेरे घर में वो बुजुर्ग मेरे जन्म से भी कई वर्ष पहले से रह रहे थे और कई तरह के घरेलु काम उनके द्वारा किया जाता था बदले में उनका रहन खाना हमारे घर में होता था। मैं उन्हें नाना कहकर संबोधित करता था। उनका वास्तविक नाम साधू तांती है इसकी जानकारी मुझे कई वर्षों के बाद ही हुई। ये एक कटु सत्य भी है कि वास्तव में मुझे अपने नाना से भी ज्यादा स्नेह उनसे ही मिला। और मेरे घर में किरायेदार के रूप में एक अंकल रहते थे जिसे मैं नारायण चाचा कहकर संबोधित करता था। मैंने चाचा का स्नेह बचपन से लेकर आजतक सिर्फ और सिर्फ उनसे ही पाया। जब भी में अपने जीवन के बुरे दौर से गुजरा सहारे के रूप में मैंने सिर्फ और सिर्फ नायारण चाचा को ही पाया। आज तो मेरे बीच मेरे नाना नहीं हैं मगर मैं उनकी यादों को भूला नहीं सकता। वो भी क्या दिन थे जब मेरे नाना मुझे लेकर पैदल ही मेरे घर लाल बिल्डिंग से बिस्टुपुर चले जाते थे राशन लाने के लिए और इस तरह हम दोनों के 25 पैसे बस किराये के बच जाते और फिर वापस आने समय मेरे नाना उन पैसों से मुझे होटल में बैठाकर गुलगुला खिलाते थे।
मेरे नारायण चाचा जी आज भी जमशेदपुर में ही अपने परिवार के साथ रह रहें हैं। उनसे मेरी मुलाक़ात होती ही रहती है। 1 से लेकर 8 वीं क्लास तक मैंने अपनी पढाई पंडित नेहरु मध्य एवं उच्च विद्यालय बागबेरा में की। वर्तमान में इस स्कूल की हालत खस्ता है। इस स्कूल के कई शिक्षकों से आज मेरी मुलाकात होती ही रहती है। चाहे वो महेश सर जी हों, भूपेंद्र सर और जीतेन्द्र सर से भी मुलाकात होती ही रहती है। मेरे जीवन में इस स्कूल की कई सारी यादें जुडी हुई हैं। इसकी बाद की पढाई मैंने क्लास IX, X और मेट्रिक की MRS K M P M स्कूल, बिस्टुपुर से की।
1991 में मेरे पापा ने टिस्को का घर ECC Flats, कदमा में ले लिए और हमारा परिवार सिर्फ पापा को छोड़ बाकि सब कदमा चले गया। एक बस्ती इलाके से फ्लैट में जाना क्या सुखद संयोग था हमारे लिए। वहां का माहोल एकदम ही निराला था। बागबेरा के घर की तुलना में वहां हमेशा ही बिजली पानी की सुविधा थी। बड़े बड़े रूम थे। हम लोग रूम के अन्दर क्रिकेट खेलते थे। मेरे पापा ने इसी बीच सेकंड हैण्ड राजदूत खरीद लिया उनका कहना था कि वे रोजाना ही गाड़ी से दूध लेकर बागबेरा से कदम पहुंचाया करेंगे लेकिन कुछ दिनों बाद सब कुछ मेरे सर आ गया मैं पापा वाली पुराणी साईकिल से KMPM स्कूल जाता और आता और रोजाना ही दूध लेने कदम से बागबेरा आता और जाता था। पापा ने परिवार को लगभग नजरंदाज करना शुरू कर दिया। कुछ ही महीने हुए होंगे कि माँ ने पापा के कारन कदम का वह फ्लैट छोड़ दिया और वापस हमलोग वही पुराने माकन लाल बिल्डिंग बागबेरा वापस आ गए। एक तरह से मैं ये कह सकता हूँ कि हमलोगों को कुछ दिनों के लिए स्वर्ग नसीब हुआ था।
किसी तरह से मैंने 1995 में मेट्रिक पास किया। मेरा क्लास X का रिजल्ट बहुत ही खराब था। वो तो मेरी माँ के दबाब और लगन का ही प्रतिफल था कि उन्होंने मुझे पढ़ने के लिए पड़ोस के एक सर श्री पप्पू भैया से बात की और मुझे वहां पढने के लिए भेजा। क्लास X के रिजल्ट से मेट्रिक की परीक्षा के बीच के समय लगभग 3 से 4 महीनों में ही मेरी तैयारी कुछ हद तक सही हो सकी। इसका पूरा का पूरा श्रेया मेरी माँ को ही जाता है। अगर माँ मेरे पीछे नहीं होती तो शायद में सामान्य पढाई भी नहीं कर पता क्योंकि मेरे पापा को किसी के पढाई से कोई मतलब नहीं था।
1995 में मैंने इंटर पास किया। इसकी बाद मेरी माँ की ही वजह से मैंने कंप्यूटर कोर्स में एड्मिसन ले पाया। सबसे पहले मैंने कंप्यूटर क्लास 6 महीनों के लिए आदियापुर में किया। उसके बाद अपने ही इलाके के कॉमर्स टीचर श्री तारा भैया के यहाँ लगभग 1 साल तक कंप्यूटर कोर्स किया। इसी बीच हमारे ही इलाके में एक नया कंप्यूटर इंस्टिट्यूट खुला था वह भी मैंने एक स्टुडेंट के रूप में दाखिला लिया लेकिन कुछ ही दिनों बाद वहीँ मैं कंप्यूटर शिक्षक के रूप में कंप्यूटर की क्लास लेने लगा। NICT कंप्यूटर जो कि लाल बिल्डिंग चौक पर स्थित है और जिसके मालिक श्री किशोर यादव हैं, वहीँ मैं 1997 से 2002 तक शिक्षक के रूप में कार्य करता रहा। इसी बीच अप्रैल 2002 में मरा विवाह करा दिया गया। मेरे काफी ना नुकर के बाद पारिवारिक दबाद के आगे मैं झुक गया और अंततः 30 अप्रैल 2002 को मेरा विवाह हुआ।
अगस्त 2002 को मैंने NML जमशेदपुर में परियोजना सहायक के रूप में कार्यभार संभाला और मेरी पोस्टिंग हिंदी ऑफिसर श्री पुरुषोत्तम कुमार के अधीन हिंदी विभाग में हुई। यहाँ मैं 2002 से अप्रैल, 2006 तक कार्य करता रहा। इसी बीच मैंने CMERI दुर्गापुर में परमानेंट सहायक के पड़ हेतु परीक्षा दिया और CMERI दुर्गापुर में सहायक के पोस्ट पर मैंने 20 जून, 2006 को कार्य भार ग्रहण किया।
अफसरों के मदद और अपनों के आशीर्वाद से मैं 1 सितम्बर 2008 को CMERI दुर्गापुर से ट्रान्सफर होकर वापस NML जमशेदपुर एक परमानेंट पोस्ट के साथ ज्वाइन किया। वर्तमान में मैं यहाँ बिल अनुभाग में कार्य कर रहा हूँ और आयकर के कार्य के अलावा वैज्ञानिको, तक्नीकी अधिकारीयों और सामान्य संवर्ग अधिकारिओं के वेतन बिल बनाने, GPF, LTC बिल आदि का कार्य कर रहा हूँ। जितना काम मैंने NML में सिखा उतना मैं CMERI दुर्गापुर में नहीं सिख पाया था।