रविवार, 10 जुलाई 2011

आत्महत्या की पहली असफल कोशिश - 1994

मुझे अच्‍छे से याद है वर्ष 1994 का वह साल था जबकि मैं के.एम.पी.एम. इण्‍टर कॉलेज के प्रथम वर्ष का छात्र था। वही पिताजी वाली साइकिल से लालबिल्डिंग के अपने घर से बिष्‍टुपुर स्थित कॉलेज जाना तथा वापस आना। कभी कभार पैदल ही स्‍टेशन जाकर वहां से बस पकडकर कॉलेज जाना तथा वापस आना। पढाई - लिखाई से संबंधित कभी कोई प्रश्‍न मेरे पिता ने मुझसे न तो बाल्‍यवस्‍था में पूछे थे और न ही कॉलेज लाइफ में। उन्‍हें कोई मतलब ही कभी नहीं रहा कि उनके बच्‍चे क्‍या-कहां-कब पढ रहे हैं, पढ भी रहें हैं कि नहीं। उनके लिए जिंदगी सामाजिक कार्य से लेकर घर के बगान तक सीमित रहती।

1994 के अगस्‍त महीने में मैंने आत्‍महत्‍या की पहली नाकाम कोशिश की थी। क्‍यों की थी आज तक मैंने यह बात किसी से शेयर नहीं की है। मगर अब लगता है कि अब इसे मैं अपने दिल के अंदर दबा कर और नहीं रख सकता। इसलिए आज बहुत दिनों के बाद काफी सोचने समझने के बाद इसके उपर से पर्दा उठाने जा रहा हॅूं।
मैंने बचपन से यही देखता आया कि किसी भी प्रकार की कोई समस्‍या होने पर उस समस्‍या के निराकरण के बदले मेरे पिताजी उस समस्‍या को लेकर किसी मेरी मां पर ही ताना कसने लगते थे तथा सभी प्रकार की समस्‍याओं को लेकर मेरी मां पर ही दोषारोपण करते थे। मेरे साथ भी वर्ष 1994 में लगभग यही हुआ। घटना वाले दिन किसी बात को लेकर मैंने अपने सबसे छोटे भाई को डांटा तथा उसकी पिटाई कर दी। इसके बाद वह मेरी शिकायत लेकर मेरे पिताजी के पास चला गया। मेरे पिताजी तुरंत इस बात को लेकर उसके सामने ही मुझे खरी खोटी सुनाने लगे तथा कहने लगे कि अभी मैं जिंदा हॅूं यदि यह कुछ गलत करता है तो आप मुझसे कहें आपको हाथ उठाने की डांटने की कोई आवश्‍यकता नहीं हैा यह बात मेरे दिल घर कर गई। मैंने अपने छोटे भाई को उसकी गलती के कारण डांटा था और थोडी पिटाई कर दी थी, क्‍या बडा भाई यह सब कुछ नहीं कर सकता मगर मुझे मेरे अधिकारों को सीमित कर दिया गया और मुझे ऐसा लगा कि मेरे छोटे भाई के सामने मुझे फटकार लगाकर मुझे जलील किया गया। यह सब कुछ मैं सहन नहीं कर पाया और मैंने तुरंत ही एक फैसला ले लिया। इस जिंदगी को छोडने का।

इसके बाद मैंने घर में रखे रेट प्‍वाइजन के चार पैकेट को लेकर अपने रूम में गया और सबके पैकेट को फाडकर अपने हथेली में लिया और फिर मेरे सामने जिंदगी और मौत की जंग जारी हो गयी। न जाने कैसे कैसे ख्‍यालात मेरे जेहन के आमने-सामने से आर-पार होते चले जा रहे थे। मैंने अचानक ही अपने हथेली को अपने मुंह के अंदर रख दिया। अंदर जाते ही मुझे अजीब सा स्‍वाद महसूस होने लगा तो फिर मैं तुरंत अपने घर के किचन के अंदर गया और वहां से सूखा दूध जो चाय बनाने के लिए घर में लाया जाता है, अमूल स्‍प्रे दो चम्‍मच लेकर अपने मुंह में डाला और फिर निगल लिया।

थोडी देर के बाद मैं इण्‍टर की टयूशन के लिए चला गया। लगभग दो घंटे बाद टयूशन से वापस आने के बाद मैं अपने रूम के बिस्‍तर पर लेट गया। तभी मेरा मित्र जो मेरे साथ टयूशन पढ रहा था वह भी मेरे रूम में आया और मुझसे पूछने लगा क्‍या बात है आज तुम्‍हारी तबीयत कुछ खराब लग रही था। कोई परेशानी तो नहीं। मैंने जवाब देते हुए उसे कहा - नहीं ऐसी कोई बात नहीं। फिर उसने जिद करते हुए कहा, - मुझसे कुछ मत छुपाओ, मैंने देखा आज तुम ठीक से टयूशन में नहीं थे। फिर मैंने उससे कहा - एक बात कहूं किसी से बताओगे तो नहीं, उसने कहा - नहीं, मैंने उससे कहा - मैं अब इस दुनियां से जा रहा हॅूं, यदि मुझसे कोई भूल हो गई हो तो मुझे माफ करना। मेरे इस बात पर वह मुझसे पूछा - क्‍या बात कह रहे हो मुझे कुछ बताओ भी, मैंने कहा - मैंने रेट प्‍वाइजन खा लिया है और अब मुझे ऐसा लग रहा है कि जल्‍द ही मैं इस दुनिया से दूसरी दुनिया की ओर जाने वाला हॅूं। मेरा इतना कहना था कि मेरा दोस्‍तु चिल्‍लाते हुए मेरे घर के उस ओर भागा जहां मेरी मां थी और कहने लगा - चाची सुमन ने जहर खा लिया है।

घर वाले सारे आवाक होकर मेरे रूम की और दौडे और मुझे अस्‍पताल ले जाने की कोशिश करने लगे मगर मैं किसी कीमत पर अस्‍पताल जाने को तैयार नहीं था तभी मेरे टयूशन के सर आ गए और मुझे डांट फटकार कर जबरदस्‍ती कर एक टेम्‍पो में बिठाया और अस्‍पताल भेजा। अस्‍पताल जाने समय मैं लगभग बेहोशी की सी अवस्‍था में था। मुझे थोडा बहुत याद आता है वह लम्‍हा जब वह टेम्‍पो रेलवे की क्रासिंग पर रोक दिया गया था क्‍योंकि ट्रेन आने वाली थी तभी मेरा दोस्‍त मनीष टेम्‍पो से उतरकर क्रासिंग वाले पहरी से मेरी जान बचाने के लिए क्रासिंग खोलने को कह रहा था। उसके बाद मुझे कुछ याद नहीं।

अस्‍पताल पहुंचने पर मेरे नाक के रास्‍ते से एक पाइप डाल दिया गया था तथा उसमें कुछ लिक्विड डालकर मुझे उल्‍टी करायी जाती रही।

लगभग दो दिनों तक अस्‍पताल के बिस्‍तर की शोभा बनकर मैं वापस घर चला आया मगर अपने साथ इस हकीकत को आज तक छुपाता फिरता रहा कि मैंने आखिर आत्‍महत्‍या की कोशिश की क्‍यों थी। मेरे पिताजी वो भी अंजान की ही तरह हर बार मुझसे पूछते रहे कि आखिर क्‍या बात है बेटा मगर मैंने आज तक उनसे यह बात नहीं बतायी। उस समय न तो मेरी जिंदगी में कोई लडकी थी जिसकी लिए मैं आत्‍महत्‍या जैसा कदम उठाने की सोचता।

आत्‍महत्‍या की असफल कोशिश ने मुझे जिंदगी से बेजार कर दिया था। इसके बाद जीवन जीने की कल्‍पना मात्र भी मेरे लिए एक सजा से कुछ कम नहीं थी, ठीक इसी समय मेरे दिल में जिंदगी बनकर एक शख्‍स ने अपनी दस्‍तक दी। जिसकी बदौलत मैं जिंदगी जीने को विवश हुआ सिर्फ यही सोचकर कि इसके साथ तो मैं दो खज में भी अपना जीवन गुजार सकता हॅूं मगर परिस्थितियां ऐसी हुई कि आज मैं यहां और वो न जाने कहां किस भीड में गुम हो चुकी है।

सबसे मजेदार बात तो यह कि जिसने मुझे जिंदगी से मोहब्‍बत कराया उसी को मैं अपनी मोहब्‍बत का फलसफां समझाने में नाकाम रहा।

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