बुधवार, 16 जून 2010

मेरे पास तो माँ भी नहीं है.

हर दिन रात को जब कमरे में सोने जाता हूँ, लाईट बंद करके जैसे ही बिस्तर पर लेटता हूँ, मेरे जेहन में दीवार फिल्म का वो सीन तरोताजा हो जाता है। ऐसा लगता है जैसे बिलकुल ही मेरी आँखों के सामने वो सीन चल रहा है जब एक भाई दुसरे भाई से कहता है "मेरे पास बंगला है, मोटर है, कार है, ............. तुम्हारे पास क्या है" और दूसरा भाई जवाब देते हुए कहता है "मेरे पास माँ है"। ये सीन, ये संवाद हर रात को मेरे जेहन के आर-पार होता है और मुझे ये सोचने पर विवश कर देता है कि फिल्म और असल जिंदगी के बीच कितने फर्क है. कहाँ इस फिल्म में वो माँ जो बचपन से जिस बेटे से ज्यादा प्यार करती रही महज गलत रास्ते पर चलने के कारन वो उस बेटे के बदले अपने दुसरे बेटे का साथ देना पसंद करती है और उसके साथ उसके घर में रहने लगती है।
मेरे अनुसार आज तक मैं अपने रास्ते पर सही था, सही हूँ और मुझे खुद पर विश्वास है कि आगे भी सही ही रहूंगा। मेरी शादी जो कि 30 अप्रैल, 2002 में हुई, इससे पहले मैं अपने घर का दुलारा बेटा था, अपनी माँ का सबसे प्रिय बेटा था। आज मेरे पास जो कुछ भी है वो सिर्फ मेरी माँ की ही देन हैं। इसका एहसास ना सिर्फ मुझे था बल्कि ऐसा घर के अन्य सदस्यों का भी मानना था। ऐसा कहा जाता है कि मैंने जो भी माँगा वो मुझे दिया गया जबकि एक नयी साईकिल तक के लिए मैं आजीवन तरसता रहा। (मेरे पिछला ब्लॉग पढ़ें।) मैं अपने घर में अपनी माँ का प्रिय था ये मैं जानता था। मगर मेरी शादी ने मेरे जीवन में मानो भूचाल ही ला दी। ऐसा कहा जाता है कि शादी के बाद बेटा बदल जाता है मगर मेरे मामले में तो उल्टा ही हुआ, घर के सभी बदल गए। जो बेटा कल तक घर का लाडला हुआ करता था आज तो वो प्यार के एक शब्द तक के लिए तरस गया। हालात बद से बदतर होते गए, मगर मैं नहीं बदला। छोटे भाई की शादी हुई, छोटे भाई ने आर्मी की नौकरी छोड़ दी। वो घर पर ही रहने लगा। घर में हालात और भी तब बदतर हो गए जब उसने हम सबके सामने ही अपनी पत्नी को बेरहमों की तरह से पीटना शुरू कर दिया। मैंने इसका विरोध किया तो मेरे और मेरी पत्नी के खिलाफ कई बातें घर में होने लगी। उस समय मैं दिन में सुबह 909.15 से शाम 05.45 तक NML जमशेदपुर में अ-अस्थाई रूप से परियोजना सहायक के रूप में तथा रात 8 बजे से रात 01.30 बजे तक उदितवाणी प्रेस में पार्ट टाइम कंप्यूटर ओपरेटर के रूप में काम करता था और किसी तरह से 4 हजार तक की कमाई कर पाता था। उस वक़्त मैं रात के 2 बजे से सुबह के 4 - 4.30 बजे तक जागकर प्रतियोगिता की तैयारी करता था, क्यूंकि मैंने परमानेंट नौकरी के लिए कई फॉर्म भरे थे, जिसका लिखित परीक्षा होना था। उस समय ही मुझे एक बेटा भी हुआ था। हालात ऐसे बेकाबू हो गए थे कि अब मुझे इस घर में रहना किसी जेल से कम महसूस नहीं हो रहा था। ये वर्ष 2006 की बात है। ऐसे में मैंने भाड़े के घर में जाने का निर्णय ले लिया और इस सिलसिले में मैं बागबेरा के एक घर को देखा और भाड़े में लेने के लिए इसके मकानमालिक से मिला भी। वे इस घर के लिए 1800 रुपये प्रति महीने मांग रहे थे। मैंने कुछ दिन बाद उनसे मिलने को कहा और वापस घर आ गया। तभी अचानक मुझे अपने ससुराल से ये सन्देश मिला कि वे लोग अपने गाँव जा रहें हैं उनका घर खाली ना रहे इसलिए वे चाहते हैं कि उनके जमशेदपुर वापस आने तक मैं अपने पत्नी और बेटे के साथ उनके घर में रहूँ। मैंने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और मैं अपनी पत्नी और बेटे के साथ अपने ससुराल में रहने कुछ दिनों के लिए चला गया। इस बीच मैं अपनी पत्नी को बागबेरा का वो घर दिखने ले गया। उस घर को देखकर मेरी पत्नी असंतुष्ट हुई और मुझसे बोली कि इस घर में रहना मुश्किल है, आप कोई दूसरा घर देखें। मैंने अपने करीब के दोस्तों को किसी भाड़े के घर के लिए बोल दिया था और लगभग रोजाना ही मैं NML से छुट्टी होने के बाद कोई ना कोई घर देखने जा ही रहा था कि एक दिन जब NML में ऑफिस के समय में मैंने वो वेबसाइट देखा जिस पर मेरे द्वारा दिए गए परीक्षा का रिजल्ट आने वाला था मगर कई दिनों से नहीं आ रहा था, आज रिजल्ट वेबसाइट पर निकल गया था और मैं CMERI दुर्गापुर के लिए सहायक की लिखित परीक्षा में पास हो गया था और इसका साक्षात्कार अगले महीने 3 अप्रैल, 2006 को कोल्कता में तय किया गया था। NMLसे छुट्टी होने के बाद मैं ख़ुशी ख़ुशी बिस्टुपुर अपने ससुराल पहुंचा और गेट से ही अपनी पत्नी को आवाज लगे, जब मेरी पत्नी सामने आई तो मैंने उसे गले लगाकर कहा "मुबारक हो" उसने मुझे पूछा "क्या बात है, सैलरी बढ़ गयी क्या" मैंने जवाब देते हुए कहा "नहीं रे, अब तुम्हे किसी भाड़े के घर में नहीं रहना, अब तो तुम सरकारी घर में ही रहोगी" इतना कहना था कि मेरी पत्नी के आँखों में आंसू आ गए और उसने रून्ध्ते स्वर में कहा "क्या बात है?" तब जाकर मैंने उसे अपने लिखित परीक्षा में पास होने की जानकारी दी। मुझे अपने ऊपर यकीं था कि मैं किसी तरह का भी साक्षात्कार का सामना आसानी से कर सकता हूँ और हुआ भी यही मेरा साक्षात्कार मेरे अनुसार बहुत बढ़िया रहा। कुछ महीनों के बाद मैंने CMERI दुर्गापुर में परमानेंट नौकरी ज्वाइन कर ली और फिर सीधे बिस्टुपुर ससुराल से अपनी पत्नी और बच्चे तथा अपने घर से अपने सामान को दुर्गापुर शिफ्ट कर लिया। लगभग दो साल मैं वहां रहा और फिर 1 सितम्बर, 2008 को मैं ट्रान्सफर कराकर वापस एक परमानेंट पद पर NML जमशेदपुर आ गया।
इन वर्षों के दौरान मुझे रोजाना ही दीवार फिल्म के इस सीन और इसके डायलाग का सामना करना पड़ा और ये निरंतर जारी है। वर्तमान परिदृश्य में मेरे साथ वो हो रहा है जो उस फिल्म में खलनायक की भूमिका निभा रहे अमिताभ बच्चन के साथ हुआ, जो गलत रास्ते पर चलने के कारन अपनी माँ की ममता से दूर हो गया। आज भी वो डायलाग "मेरे पास माँ है" के अनुभूति मेरे जेहन को जार-जार कर देती है और मुझे ये सोचने पर विवश कर देती है कि आखिर किस गलती की सजा मुझे मिल रही है जो एक खलनायाक की भांति मुझसे पेश आया जा रहा है। मेरा अंतर्मन रोजाना ही चोटिल हो रहा है।
सही रास्ते पर चलने के बावजूद मैं तो आज यही खुद को कहने को विवश हूँ कि "मेरे पास तो माँ भी नहीं है."

बड़ा बेटा और छोटे भाई की शादी.

मुझे मिलाकर हम तीन भाई हैं। इनमें से सबसे बड़ा मैं ही हूँ। मेरे बाद वाले भाई पुरुषार्थ सुमन, जिसे हम सब प्यार से छोटू बोलते थे। वो कम उम्र से ही रंगीला मिजाज का रहा है। दिखने में भी वो अक्षय कुमार से कुछ कम नहीं लगता था। छोटे उम्र से ही उसका झुकाव लड़कियों की तरफ ज्यादा रहा था। इंटर तक की पढाई करने के बाद जमशेदपुर के टेल्को मैदान में ही हुए आर्मी के सेलेक्सन कैंप में उसका चयन हो गया और उसने बड़ी ही कम उम्र में आर्मी ज्वाइन कर ली। उस समय मैं NICT कंप्यूटर इंस्टिट्यूट में कंप्यूटर शिक्षक के रूप में कार्य कर रहा था। मुझे अच्छे से याद है जब उसकी आर्मी की ट्रेनिंग चल रही थी, एक दिन उसने मुझे फ़ोन किया था और रो रोकर मुझसे आर्मी की नोकरी छोड़ने की बात बोल रहा था। मैंने उसे समझाया था कि पागल हो क्या? आज के ज़माने में भला नोकरी किसी को मिलती है क्या? ऐसा हरगिज नहीं सोचना। वो अक्सर फ़ोन पर माँ से भी यही बातें करता और माँ बोलती थी कि बेटा तुम्हारी शादी कर दूँ फिर तुम ये आर्मी की नोकरी छोड़ देना। मेरी शादी तो हो ही चुकी थी। उसकी शादी के लिए भी लड़की वाले आ ही रहे थे। बहुत सारे लड़की वालों से उसकी शादी की बातचीत हो रही थी, मगर कहीं भी बात फाइनल नहीं हुई थी। इसी बीच मेरे माता पिताजी दोनों ही कुछ काम के सिलसिले में अपने गाँव फरदा, मुंगेर, बिहार गए। उनके गाँव जाने के कुछ दिनों बाद घर में फ़ोन आया कि बेटा यहाँ गाँव में तुम्हारे पापा की तबियत कुछ खराब हो गयी है, ऐसा करो तुम सबसे छोटे भाई सत्यार्थ को उन रूपयों के साथ गाँव भेज दो जो घर के भाड़े के रूप में उसे भाडेदार ने दे दिए होंगे। हमारे पुराने घर के कुछ कमरे किराये पर दिए गयी थे जिनका किराया पापा को मिलता था क्योंकि पापा पुराने घर में ही रहते थे। मैंने अपने सबसे छोटे भाई सत्यार्थ को इस विषय में बताया और उसे अपनी गाड़ी से रेलवे स्टेशन ट्रेन पकड़ने के लिए छोड़ आया। कुछ दिनों बाद फिर मेरे पास मेरी माँ का फ़ोन आया और माँ ने कहा "बेटा हमलोग जमालपुर रेलवे स्टेशन में हैं, यहाँ तुम्हारे छोटे भाई के लिए एक लड़की देखने आयें हुए हैं, लड़की थोड़ी हेल्थी है, क्या करूँ कुछ समझ में नहीं आ रहा है? तुम ही बताओ" इतना सुनकर मैं विस्मित हो गया और थोड़ी देर के लिए मैं सोचने लगा कि मेरे भाई के लिए लड़की देखने गएँ हैं और मुझे जानकारी तक नहीं। मैंने तुरंत ही अपनी माँ से कहा "देखो माँ जो भी फैसला करना छोटू से बात करके ही करना", इतना कहकर मैंने तुरंत ही छोटू का फ़ोन नंबर अपनी माँ को नोट कर दिया। दुसरे दिन शाम के समय मेरे गाँव से फ़ोन आया कि माँ, पापा और सत्यार्थ गाँव से जमशेदपुर के लिए निकल चुके हैं और मेरे छोटे मौसेरे भाई ने मुझे ये बात बतलाई कि "छोटू भैया का रिश्ता तय हो गया है, मगर मुझे वो लड़की छोटू के लायक नहीं लगती" मेरी मौसी ने मुझसे कहा कि "बेटा तुम्हरे माँ पिताजी ने रिश्ता तय कर दिया है और वे तो लड़की वालों से कुछ रूपए भी लेकर अपने साथ गए हैं" इतना सुनकर मैं कुछ देर के लिए खामोश ही रहा जबकि फोन दूसरी और से कट चूका था। मेरी पत्नी मुझसे बार बार पूछ रही थी क्या बात है? मगर मैं उसे कुछ भी बता पाने के लायक नहीं था। आज मैं अन्दर ही अन्दर पूरी तरह से टूट गया था। मुझे कुछ समझ मैं ही नहीं आ रहा था, ये क्या हो रहा है, ये क्यूं हो रहा है, आखिर मैंने क्या गुनाह किया है? आखिर मेरे अपने सहोदर छोटे भाई का रिश्ता तय कर दिया गया और मैं और मेरी पत्नी को लड़की और उसके परिवार को देखने तक का मौका नहीं दिया गया। सब कुछ इतना अचानक क्यों किया गया मैं समझ ही नहीं पाया। मेरे माता पिताजी ने क्यों घर के एक बड़े बेटे को इस घर के इतने बड़े फैसले में शरीक नहीं किया, ये मैं बिलकुल ही समझ नहीं पाया।
दूसरे दिन मैं अपनी गाड़ी लेकर रेलवे स्टेशन गया अपने माँ पिताजी और सबसे छोटे भाई सत्यार्थ को रिसीव करने। अपनी माँ को मैंने अपनी गाड़ी के पीछे बैठाया जबकि मेरे पिताजी और छोटा भाई टेम्पो से आने लगा। रास्ते में मैंने अपनी माँ से पूछा कि माँ क्या छोटू का रिश्ता तय हो गया है? माँ ने बड़े ही सहजता से जवाब देते हुए कहा कि "अभी कहाँ अभी तो हमने लड़की ही देखी है, छोटू छुट्टी में घर आएगा लड़की पसंद करेगा तभी बात फ़ाइनल होगा" मैंने फिर पूछा "कहीं तुमलोगों ने लड़की वालों से रुपये तो नहीं ले लिए" माँ ने सहज भाव से कहा "नहीं रे पैसे की जल्दी क्या है पहले छोटू को लड़की तो पसंद आ जाय" कुछ देर के बाद हम लोग घर आ गए और तभी मेरे पापा ने मेरी माँ से कहा "बीना हो, रुपयों को ठीक से गिन लीजिये और सैफ में रख दीजिये" इतना सुनना था कि मैं अपनी माँ को देखने लगा, मेरी माँ को काटो तो खून नहीं, उनकी झूठ पकड़ी गयी थी। आनन् फानन में मुझे लड़की का फोटो देखने के लिए दिया गया, फोटो देखकर मैंने उस फोटो को जमीं पर फेंक दिया और अपनी माँ से कहा "माँ तुम्हे ये लड़की किसी भी एंगल से छोटू के लायक लगती है क्या?, कैसे तुमने इसे छोटू के लिए पसंद कर लिया?" इतना कहकर मैं अपने कमरे के अन्दर चला गया फिर मुझे पता चला कि माँ ने फ़ोन करके छोटू को छुट्टी लेकर आने को कहा ताकि वो लड़की दो देख सके मगर उसने माँ को यही कहा जो तुम्हारी पसंद है, उसी से मैं शादी करूँगा। और फिर वो अपनी शादी के लिए आर्मी से 1 महीने की छुट्टी लेकर आया और उसकी धूम धाम से गाँव से ही शादी भी हो गयी मगर शादी के बाद जब छुट्टी ख़तम होने पर वो अपनी आर्मी की नोकरी ज्वाइन करने जम्मू गया तो उसने वहां से माँ को फ़ोन करके कहा कि "माँ मैं नोकरी ज्वाइन नहीं करना चाहता, मैं वापस आना चाहता हूँ, तुम यदि मन करोगी तो मैं यहीं कहीं घूमता रहूँगा मगर नोकरी ज्वाइन नहीं करूँगा" इसपर माँ ने उससे कहा कि "बेटा तुम घर वापस आ जाओ" और फिर मेरा छोटा भाई आर्मी की नोकरी छोड़ वापस अपने घर जमशेदपुर आ गया।
आज भी वो जमशेदपुर में ही अपनी माँ के साथ ही रह रहा है मगर बहुत कुछ बदल चूका है। आज की तिथि में वो एक नंबर का पियक्कड़ हो चुका है। उसका दिन दारू से शुरू होता है और दारू से ही दिन ढलता भी है। सिर्फ उसकी ही वजह से मैं अपनी पत्नी और एक्लोते बेटे के साथ NML कालोनी गोलमुरी में रह रहा हूँ और तनहा जीवन यापन कर रहा हूँ।
अब तो मेरा छोटा भाई छोटू अपनी माँ की ख़ुशी के लिए अपनी बीबी तक को लातों से भी मारने से परहेज नहीं करता है। उसका एक 4 साल का बड़ा प्यारा बेटा भी है, जो अपनी आँखों से ये सबकुछ देखता है। पता नहीं वो क्या समझता होगा जिन्दगी के मायने को। पता नहीं किन संस्कारों में वो अपना जीवन यापन करेगा। आज मेरा छोटा भाई छोटू और उसकी पत्नी और बेटे का पूरा खर्चा मेरे माँ और पिताजी ही उठा रहें हैं। अपने छोटे भाई को दिन प्रतिदिन अँधेरे की ओर गर्त में गिरते देख रहा हूँ, मैं मानसिक रूप से आहत हूँ समझ नहीं पा रहा हूँ कि मैं क्या करूँ?