बुधवार, 2 जून 2010

साईकिल का अरमान

बात उन दिनों की है जब मैं 1995 में इंटर पास करके B Sc. (Math) में नामांकन कराया था। उस वक़्त मैंने tuition के लिए आदर्श नगर, सोनारी में कोपरेटिव कालेज के प्रोफेसर के यहाँ अपना नामांकन कराया। मेरे घर से सोनारी की दूरी लगभग 10 किलो मीटर थी। मेरे पास वोही पुरानी साईकिल जो मेरे पापा की थी जिसका उपयोग मैं 1992 से करता आ रहा था। इसी साईकिल से मैंने KMPM स्कूल, बिस्टुपुर जाकर क्लास IX और X की पढाई की और मेट्रिक पास किया, इसी साईकिल से मैं KMPM इंटर कॉलेज, बिस्टुपुर जाकर XI और XII की पढाई की और इंटर पास किया। अब चूँकि मैंने SP कॉलेज, parsudih में Graduation के लिए अपना नाम लिखा लिया था और tuition के लिए मुझे सोनारी जाना पड़ रहा था इसलिए मैंने अपने पापा से एक नयी साईकिल के लिए कहा। ऐसा नहीं कि मैंने अपनी साईकिल के लिए पहली बार अपने पापा से कही हो, ये मैं विगत 4 वर्षों से उनसे कहता आ रहा था, लेकिन मुझे नयी साईकिल नहीं मिल रही थी। मगर इस बार मैं जिद पर आ गया और मैंने भूख हड़ताल कर दी और कहा कि जब तक मुझे नयी साईकिल नहीं मिलेगी मैं खाना नहीं खाऊंगा।

अंततः मेरे पापा मुझे लेकर साईकिल खरीदने के लिए घर से निकले। हम दोनों पैदल ही जा रहे थे। मेरा रोम रोम नयी साईकिल मिलने की ख़ुशी में हर्षित हो रहा था। मैं येही सोचता जा रहा था कि मैं मोटे चक्के वाला हीरो रेंजर साइकिल ही लूँगा। हीरो रेंजर साइकिल की तमन्ना मेरे मन में विगत 4 वर्षों से थी। अपने साथ के लड़कों को अच्छी साईकिल पर चलते देख मुझे अपनी साइकिल पर बैठने में खराब महसूस होती थी। मैंने कैसे कैसे करके मेट्रिक से इंटर का सफ़र पार किया लेकिन जब graduation में पंहुचा तो में इसे बर्दास्त नहीं कर सका। मुझे अपनी जिद को हकीकत का जमा पहनने के लिए अंततः भूख हड़ताल का ही सहारा लेना पड़ा।

मुझे याद आ रहा था वो लम्हा जब हमारे घर में टीवी नहीं थी, उस वक़्त बुधवार और शुक्रवार को रात 8 बजे चित्रहार DD1 पर प्रदर्शित होता था जिसमे नए नए फ़िल्मी गाने दिखाए जाते थे, उसे देखने के लिए मैं बगल वाले घर के पीछे के जंगले पर किसी तरह कूद कादकर इसे देखता था और रविवार को जब रामायण का समय होता था मैं और मेरे छोटे भाई लाइन लगाकर काफी समय पहले से बगल वाले के घर के दरवाजे के बाहर खड़े रहते थे, बगल वाले अंकल का जब मन करता तब अपना दरवाजा खोलते थे कभी वक़्त पर तो कभी काफी समय के बाद। एक दिन जब उन्होंने रामायण ख़त्म होने के बाद अपना दरवाजा खोला और मुझसे ये कहकर कि चलो जाओ अपने घर रामायण तो ख़त्म हो गया है, मुझे बहुत ही खराब लगा था, उसी दिन मैं घर आया और भूख हड़ताल पर बैठ गया और अपनी माँ से मैंने येही कहा अब तो मैं तभी खाना खाऊँगा जब मेरी घर में अपनी टीवी आएगी। और फिर अंततः मेरे घर में टीवी आ ही गई। ऐसा नहीं था कि टीवी के लिए घर में इससे पहले बात नहीं हुए कई वर्षों से हमलोग अपने पापा से एक टीवी लाने के लिए कह रहे थे मगर पता नहीं क्यूं टीवी घर में नहीं आ रहा था। ऐसा भी नहीं था कि मेरे पापा के औकात नहीं थी या फिर वे बेरोजगार थे। वे तो टिस्को में परमानेंट थे और साथ ही बहुत सारे घर किराए पर दिए हुए थे फिर भी ना जाने क्यूं हम तरसते रहे हर उस छोटी छोटी चीज के लिए जो एक सामान्य घर के लिए बहुत ही जरुरी होती है।

साइकिल के लिए जाते समय रास्ते भर मेरे दिमाग में पुरानी बातें याद आ रही थी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्यूं आखिर क्यूं हमारे साथ ये सब कुछ हो रहा है। क्यूं महज एक साईकिल के लिए भी पापा तैयार नहीं हो रहे थे। मेरे कदम जैसे जैसे आगे बढ़ रहे थे मेरी निगाहों के सामने मेरा वो ही अरमान हीरो रेंजर साईकिल दिख रहा था। अचानक ही मैंने देखा मेरे पापा तो किसी साईकिल दूकान की बजाय कपडे के दूकान के अन्दर जा रहें हैं, ये वोही कपड़ा का दूकान था जहाँ से कई वर्षों से हमारे घर में उधार में कपडे लिए जा रहे थे, मेरे पापा के कोई जान पहचान वाले का ही दूकान था। मेरे पापा अंदर गए और गल्ले पर बैठे उस अंकल से बोले कि देखो भाई तुम्हारा भतीजा साईकिल लेने की जिद कर रहा है, तुम इसे कोई साईकिल खरीद दो, इसने तो खाना पीना तक छोड़ दिया है। उस अंकल ने हँसते हुए मुझे कहा इसमें कहाँ कोई परेशानी है चलो मेरे साथ बगल में ही तो दूकान है अभी खरीद देता हूँ। इतना कहकर वो आगे की और निकल पड़े और मैं उनके पीछे पीछे चलने लगा।
थोड़ी हो दूर पर जाकर वे एक छोटी सी दूकान, जिसके सामने गिनती के महज चार साईकिल लगी हुई थी और वो दूकान कोई रोड पर फूटपाथ पर लगाए जाने वाला दूकान सा लग रहा था, के सामने रूक गए और मुझसे कहा कि देख लो कौन सी साईकिल लेनी है। उस दूकान को देखकर मैं समझ नहीं पा रहा था कि ये क्या हो रहा है, क्यूंकि महज चार साईकिल ही तो दिख रही थी यहाँ, मैंने उन साइकिलों को देखकर कहा कि इसमें से तो मुझे कोई पसंद ही नहीं मुझे तो मोटे चक्के वाला हीरो रेंजर साईकिल चाहिए। मेरी बात सुनकर अंकल ने कहा देखो यदि साईकिल चाहिए तो जो यहाँ दिख रहा है उसमें से कोई एक ले लो। मैं दुविधा में था, मैं तो बीते चार वर्षों से हीरो रेंजर साईकिल के अरमान लिए भटक रहा हूँ और यहाँ तो पुराने मॉडल वाले साईकिल ही हैं और एक साईकिल नयी मॉडल की है भी तो वो पतले चक्के वाली है। मैंने झिझकते हुए ये सोचकर कि यदि ये नहीं मिला तो पापा फिर कभी दुबारा देंगे भी नहीं मैंने अपना मन मारते हुए पतले चक्के वाला साईकिल चुन लिया और फिर थोड़ी देर के बाद वो साईकिल अनमने मन से लेकर घर वापस आ गया।
मेरा हीरो रेंजर साईकिल खरीदने का वो अरमान आज तक अधूरा है। शादी हो गयी, बच्चे हो गए मैं परमानेंट नौकरी कर रहा हूँ मगर मेरा हीरो रेंजर साईकिल का वो खवाब आज तक अधूरा ही है शायाद जीवन भर अधूरा ही रहे? अब तो पिछले साल अपने बेटे के लिए छोटी साईकिल खरीदी मैंने। मेरी सारी हसरत तो दफ़न ही है, अब अपने अरमानों को पूरे करने का समय ही नहीं, पारिवारिक हसरतों को तवज्जो देना ही मेरी पहली प्राथमिकता है। मैं वो सारे सुख अपने परिवार को देना चाहता हूँ जिसके लिए मैं बचपन से लेकर आज तक तरसता रहा।
आज तक में ये नहीं समझ पाया कि आखिर क्यूं हमारे साथ ही ये सब कुछ हुआ, जबकि मेरे पापा तो उस समय परमानेंट नौकरी में थे। हर एक चीज के लिए हम तरसते रहे। पिता का स्नेह क्या होता है ये तो आज तक मैं जान ही नहीं पाया।