कितना आसान है ये कहना कि भूल जाओ। मगर क्या ऐसा मुमकिन है? मैंने अपनी जिन्दगी में ये आजमा कर देखा है? एक तरफा मोहब्बत की तपिस में जल जलकर किसी की निगाहों में अपनी जिन्दगी का सवेरा देखा है। नफरत भरी नज़रों में न जानें क्यूं अपने लिए बेइंतहा प्यार देखा है। किसी को अपनी धडकनों में बसाकर अपनी निगाहों में उसका अख्स बिठाकर फिर उसे भूल पाना भला कैसे संभव हो सकता है? जिसकी याद मेरी सांसों में दोड़ते हुए खून की तरह फ़ैल चुकी हो उसे भला भूल पाना कैसे संभव हो सकता है? 1994 से लेकर आज तक सब कुछ बदल चुका है। यदि नहीं बदला तो सिर्फ मेरा अंतर्मन और मेरी दिल का वो एहसास जो किसी के प्रति समर्पित था। 1994 से 28 नवम्बर, 2000 के बीच जबकि मेरी उससे कोई व्यक्तिगत मुलाकात तक नहीं हुई थी, मेरी आँखे हर दिन उसके दीदार को प्यासी भटकती रहती थी. उसकी एक नज़र पाने भर को मैं बेचैन हो उठता था। 29 नवम्बर, 2000 ने मेरे उन सारे एहसासों को मिटा दिया। मेरी सोच को मुझे बदलने को मजबूर कर दिया। इस दिन में स्वप्न लोक की नगरी से धरातल पर वापस आया और मैंने खुद का सही आंकलन किया। एक तरफ मेरी दम तोडती मोहब्बत थी तो दूसरी तरफ वो
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