मेरे घर का सबसे छोटा बेटा और मेरा सबसे छोटा भाई सत्यार्थ सुमन वर्तमान में UCIL जादूगोड़ा में वैज्ञानिक सहायक के पद पर कार्यत है। पिछले कई वर्षों से उसकी शादी की बातचीत चल रही थी। उस दौरान मैं दुर्गापुर में ही था। कई लड़की वालों के प्रस्ताव आये थे। कई लड़कियों के फोटो भी आये थे और कई लड़कियों को देखने मेरे माता पिताजी अपने दामाद और बेटी के साथ गए थे। सितम्बर, 2008 से मैं अपनी पत्नी और बेटे के साथ जमशेदपुर में ही रह रहा हूँ। इस वर्ष मुझे अपने परिवार के साथ अपने भाई की शादी के लिए दो जगह लड़की देखने का न्योता भी मिला। पहले वाली लड़की हमारे परिवार को पसंद नहीं आई मगर दूसरी लड़की जिसे हमलोग देखने राम मंदिर, बिस्टुपुर गए वे हम सबों को पसंद आई। इसके कुछ दिनों के बाद माँ ने हमारी मौसी को गाँव से बुलाया। मौसी गाँव से आई तो हमें बताया गया की मौसी भी लड़की देखने जा रही है। मौसी, माँ घर की मंझली बहू, मंझला बेटा, बेटी और दामाद भी लड़की देखने गए। कुछ दिनों के बाद मुझे किसी और ने ये सूचना दी कि उस दौरान ही मेरे सबसे छोटे भाई की मंगनी कर दी गयी, मंगनी का मतलब एंगेजमेंट अर्थात लड़की और लड़के दोनों ने एक दूसरे को अंगूठी पहनाई। कहने को तो ये एक छोटी सी बात लगाती है मगर मेरे लिए इसके बड़े मायने हैं। मेरे और मेरी पत्नी के साथ वही हुआ जो इससे पहले मेरे मंझले भाई के मामले में हुआ था। (पढ़े मेरा पहले का ब्लॉग "मेरे छोटे भाई की शादी"।) इस बार भी मेरी नजर में मेरे साथ गलत हुआ बिलकुल अन्याय हुआ। घर के छोटे भाई की मंगनी कर दी गयी मगर सिर्फ 3 से 4 किलो मीटर की दूरी पर रहने वाले उसके बड़े भाई को खबर तक नहीं की गयी। ये सब क्या हो रहा है, क्यूं हो रहा है, मेरे माता पिताजी मेरे साथ क्यूं ये सब कर रहें हैं। ये मैं समझ ही नहीं पा रहा हूँ। कहाँ से मैं निभायूं भला एक बड़े बेटे और एक बड़े भाई का फ़र्ज़। शायद यही वजह है कि मैंने आपने आपको समेट लिया है अपने छोटे से परिवार के बीच। मेरे लिए अब परिवार का मतलब मेरी पत्नी और मेरे अबोध बेटे से है। इश्वर सबको खुश रखे, दूर रहकर मैं अपने इष्ट से यही कामना करता हूँ।
We are all INDIAN before a Hindu, Muslim, Sikh aur Isai or a Bihari, Marathi, Bengali etc. Love to all human being........
मंगलवार, 22 जून 2010
बुधवार, 16 जून 2010
मेरे पास तो माँ भी नहीं है.
हर दिन रात को जब कमरे में सोने जाता हूँ, लाईट बंद करके जैसे ही बिस्तर पर लेटता हूँ, मेरे जेहन में दीवार फिल्म का वो सीन तरोताजा हो जाता है। ऐसा लगता है जैसे बिलकुल ही मेरी आँखों के सामने वो सीन चल रहा है जब एक भाई दुसरे भाई से कहता है "मेरे पास बंगला है, मोटर है, कार है, ............. तुम्हारे पास क्या है" और दूसरा भाई जवाब देते हुए कहता है "मेरे पास माँ है"। ये सीन, ये संवाद हर रात को मेरे जेहन के आर-पार होता है और मुझे ये सोचने पर विवश कर देता है कि फिल्म और असल जिंदगी के बीच कितने फर्क है. कहाँ इस फिल्म में वो माँ जो बचपन से जिस बेटे से ज्यादा प्यार करती रही महज गलत रास्ते पर चलने के कारन वो उस बेटे के बदले अपने दुसरे बेटे का साथ देना पसंद करती है और उसके साथ उसके घर में रहने लगती है।
मेरे अनुसार आज तक मैं अपने रास्ते पर सही था, सही हूँ और मुझे खुद पर विश्वास है कि आगे भी सही ही रहूंगा। मेरी शादी जो कि 30 अप्रैल, 2002 में हुई, इससे पहले मैं अपने घर का दुलारा बेटा था, अपनी माँ का सबसे प्रिय बेटा था। आज मेरे पास जो कुछ भी है वो सिर्फ मेरी माँ की ही देन हैं। इसका एहसास ना सिर्फ मुझे था बल्कि ऐसा घर के अन्य सदस्यों का भी मानना था। ऐसा कहा जाता है कि मैंने जो भी माँगा वो मुझे दिया गया जबकि एक नयी साईकिल तक के लिए मैं आजीवन तरसता रहा। (मेरे पिछला ब्लॉग पढ़ें।) मैं अपने घर में अपनी माँ का प्रिय था ये मैं जानता था। मगर मेरी शादी ने मेरे जीवन में मानो भूचाल ही ला दी। ऐसा कहा जाता है कि शादी के बाद बेटा बदल जाता है मगर मेरे मामले में तो उल्टा ही हुआ, घर के सभी बदल गए। जो बेटा कल तक घर का लाडला हुआ करता था आज तो वो प्यार के एक शब्द तक के लिए तरस गया। हालात बद से बदतर होते गए, मगर मैं नहीं बदला। छोटे भाई की शादी हुई, छोटे भाई ने आर्मी की नौकरी छोड़ दी। वो घर पर ही रहने लगा। घर में हालात और भी तब बदतर हो गए जब उसने हम सबके सामने ही अपनी पत्नी को बेरहमों की तरह से पीटना शुरू कर दिया। मैंने इसका विरोध किया तो मेरे और मेरी पत्नी के खिलाफ कई बातें घर में होने लगी। उस समय मैं दिन में सुबह 909.15 से शाम 05.45 तक NML जमशेदपुर में अ-अस्थाई रूप से परियोजना सहायक के रूप में तथा रात 8 बजे से रात 01.30 बजे तक उदितवाणी प्रेस में पार्ट टाइम कंप्यूटर ओपरेटर के रूप में काम करता था और किसी तरह से 4 हजार तक की कमाई कर पाता था। उस वक़्त मैं रात के 2 बजे से सुबह के 4 - 4.30 बजे तक जागकर प्रतियोगिता की तैयारी करता था, क्यूंकि मैंने परमानेंट नौकरी के लिए कई फॉर्म भरे थे, जिसका लिखित परीक्षा होना था। उस समय ही मुझे एक बेटा भी हुआ था। हालात ऐसे बेकाबू हो गए थे कि अब मुझे इस घर में रहना किसी जेल से कम महसूस नहीं हो रहा था। ये वर्ष 2006 की बात है। ऐसे में मैंने भाड़े के घर में जाने का निर्णय ले लिया और इस सिलसिले में मैं बागबेरा के एक घर को देखा और भाड़े में लेने के लिए इसके मकानमालिक से मिला भी। वे इस घर के लिए 1800 रुपये प्रति महीने मांग रहे थे। मैंने कुछ दिन बाद उनसे मिलने को कहा और वापस घर आ गया। तभी अचानक मुझे अपने ससुराल से ये सन्देश मिला कि वे लोग अपने गाँव जा रहें हैं उनका घर खाली ना रहे इसलिए वे चाहते हैं कि उनके जमशेदपुर वापस आने तक मैं अपने पत्नी और बेटे के साथ उनके घर में रहूँ। मैंने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और मैं अपनी पत्नी और बेटे के साथ अपने ससुराल में रहने कुछ दिनों के लिए चला गया। इस बीच मैं अपनी पत्नी को बागबेरा का वो घर दिखने ले गया। उस घर को देखकर मेरी पत्नी असंतुष्ट हुई और मुझसे बोली कि इस घर में रहना मुश्किल है, आप कोई दूसरा घर देखें। मैंने अपने करीब के दोस्तों को किसी भाड़े के घर के लिए बोल दिया था और लगभग रोजाना ही मैं NML से छुट्टी होने के बाद कोई ना कोई घर देखने जा ही रहा था कि एक दिन जब NML में ऑफिस के समय में मैंने वो वेबसाइट देखा जिस पर मेरे द्वारा दिए गए परीक्षा का रिजल्ट आने वाला था मगर कई दिनों से नहीं आ रहा था, आज रिजल्ट वेबसाइट पर निकल गया था और मैं CMERI दुर्गापुर के लिए सहायक की लिखित परीक्षा में पास हो गया था और इसका साक्षात्कार अगले महीने 3 अप्रैल, 2006 को कोल्कता में तय किया गया था। NMLसे छुट्टी होने के बाद मैं ख़ुशी ख़ुशी बिस्टुपुर अपने ससुराल पहुंचा और गेट से ही अपनी पत्नी को आवाज लगे, जब मेरी पत्नी सामने आई तो मैंने उसे गले लगाकर कहा "मुबारक हो" उसने मुझे पूछा "क्या बात है, सैलरी बढ़ गयी क्या" मैंने जवाब देते हुए कहा "नहीं रे, अब तुम्हे किसी भाड़े के घर में नहीं रहना, अब तो तुम सरकारी घर में ही रहोगी" इतना कहना था कि मेरी पत्नी के आँखों में आंसू आ गए और उसने रून्ध्ते स्वर में कहा "क्या बात है?" तब जाकर मैंने उसे अपने लिखित परीक्षा में पास होने की जानकारी दी। मुझे अपने ऊपर यकीं था कि मैं किसी तरह का भी साक्षात्कार का सामना आसानी से कर सकता हूँ और हुआ भी यही मेरा साक्षात्कार मेरे अनुसार बहुत बढ़िया रहा। कुछ महीनों के बाद मैंने CMERI दुर्गापुर में परमानेंट नौकरी ज्वाइन कर ली और फिर सीधे बिस्टुपुर ससुराल से अपनी पत्नी और बच्चे तथा अपने घर से अपने सामान को दुर्गापुर शिफ्ट कर लिया। लगभग दो साल मैं वहां रहा और फिर 1 सितम्बर, 2008 को मैं ट्रान्सफर कराकर वापस एक परमानेंट पद पर NML जमशेदपुर आ गया।
इन वर्षों के दौरान मुझे रोजाना ही दीवार फिल्म के इस सीन और इसके डायलाग का सामना करना पड़ा और ये निरंतर जारी है। वर्तमान परिदृश्य में मेरे साथ वो हो रहा है जो उस फिल्म में खलनायक की भूमिका निभा रहे अमिताभ बच्चन के साथ हुआ, जो गलत रास्ते पर चलने के कारन अपनी माँ की ममता से दूर हो गया। आज भी वो डायलाग "मेरे पास माँ है" के अनुभूति मेरे जेहन को जार-जार कर देती है और मुझे ये सोचने पर विवश कर देती है कि आखिर किस गलती की सजा मुझे मिल रही है जो एक खलनायाक की भांति मुझसे पेश आया जा रहा है। मेरा अंतर्मन रोजाना ही चोटिल हो रहा है।
सही रास्ते पर चलने के बावजूद मैं तो आज यही खुद को कहने को विवश हूँ कि "मेरे पास तो माँ भी नहीं है."
बड़ा बेटा और छोटे भाई की शादी.
मुझे मिलाकर हम तीन भाई हैं। इनमें से सबसे बड़ा मैं ही हूँ। मेरे बाद वाले भाई पुरुषार्थ सुमन, जिसे हम सब प्यार से छोटू बोलते थे। वो कम उम्र से ही रंगीला मिजाज का रहा है। दिखने में भी वो अक्षय कुमार से कुछ कम नहीं लगता था। छोटे उम्र से ही उसका झुकाव लड़कियों की तरफ ज्यादा रहा था। इंटर तक की पढाई करने के बाद जमशेदपुर के टेल्को मैदान में ही हुए आर्मी के सेलेक्सन कैंप में उसका चयन हो गया और उसने बड़ी ही कम उम्र में आर्मी ज्वाइन कर ली। उस समय मैं NICT कंप्यूटर इंस्टिट्यूट में कंप्यूटर शिक्षक के रूप में कार्य कर रहा था। मुझे अच्छे से याद है जब उसकी आर्मी की ट्रेनिंग चल रही थी, एक दिन उसने मुझे फ़ोन किया था और रो रोकर मुझसे आर्मी की नोकरी छोड़ने की बात बोल रहा था। मैंने उसे समझाया था कि पागल हो क्या? आज के ज़माने में भला नोकरी किसी को मिलती है क्या? ऐसा हरगिज नहीं सोचना। वो अक्सर फ़ोन पर माँ से भी यही बातें करता और माँ बोलती थी कि बेटा तुम्हारी शादी कर दूँ फिर तुम ये आर्मी की नोकरी छोड़ देना। मेरी शादी तो हो ही चुकी थी। उसकी शादी के लिए भी लड़की वाले आ ही रहे थे। बहुत सारे लड़की वालों से उसकी शादी की बातचीत हो रही थी, मगर कहीं भी बात फाइनल नहीं हुई थी। इसी बीच मेरे माता पिताजी दोनों ही कुछ काम के सिलसिले में अपने गाँव फरदा, मुंगेर, बिहार गए। उनके गाँव जाने के कुछ दिनों बाद घर में फ़ोन आया कि बेटा यहाँ गाँव में तुम्हारे पापा की तबियत कुछ खराब हो गयी है, ऐसा करो तुम सबसे छोटे भाई सत्यार्थ को उन रूपयों के साथ गाँव भेज दो जो घर के भाड़े के रूप में उसे भाडेदार ने दे दिए होंगे। हमारे पुराने घर के कुछ कमरे किराये पर दिए गयी थे जिनका किराया पापा को मिलता था क्योंकि पापा पुराने घर में ही रहते थे। मैंने अपने सबसे छोटे भाई सत्यार्थ को इस विषय में बताया और उसे अपनी गाड़ी से रेलवे स्टेशन ट्रेन पकड़ने के लिए छोड़ आया। कुछ दिनों बाद फिर मेरे पास मेरी माँ का फ़ोन आया और माँ ने कहा "बेटा हमलोग जमालपुर रेलवे स्टेशन में हैं, यहाँ तुम्हारे छोटे भाई के लिए एक लड़की देखने आयें हुए हैं, लड़की थोड़ी हेल्थी है, क्या करूँ कुछ समझ में नहीं आ रहा है? तुम ही बताओ" इतना सुनकर मैं विस्मित हो गया और थोड़ी देर के लिए मैं सोचने लगा कि मेरे भाई के लिए लड़की देखने गएँ हैं और मुझे जानकारी तक नहीं। मैंने तुरंत ही अपनी माँ से कहा "देखो माँ जो भी फैसला करना छोटू से बात करके ही करना", इतना कहकर मैंने तुरंत ही छोटू का फ़ोन नंबर अपनी माँ को नोट कर दिया। दुसरे दिन शाम के समय मेरे गाँव से फ़ोन आया कि माँ, पापा और सत्यार्थ गाँव से जमशेदपुर के लिए निकल चुके हैं और मेरे छोटे मौसेरे भाई ने मुझे ये बात बतलाई कि "छोटू भैया का रिश्ता तय हो गया है, मगर मुझे वो लड़की छोटू के लायक नहीं लगती" मेरी मौसी ने मुझसे कहा कि "बेटा तुम्हरे माँ पिताजी ने रिश्ता तय कर दिया है और वे तो लड़की वालों से कुछ रूपए भी लेकर अपने साथ गए हैं" इतना सुनकर मैं कुछ देर के लिए खामोश ही रहा जबकि फोन दूसरी और से कट चूका था। मेरी पत्नी मुझसे बार बार पूछ रही थी क्या बात है? मगर मैं उसे कुछ भी बता पाने के लायक नहीं था। आज मैं अन्दर ही अन्दर पूरी तरह से टूट गया था। मुझे कुछ समझ मैं ही नहीं आ रहा था, ये क्या हो रहा है, ये क्यूं हो रहा है, आखिर मैंने क्या गुनाह किया है? आखिर मेरे अपने सहोदर छोटे भाई का रिश्ता तय कर दिया गया और मैं और मेरी पत्नी को लड़की और उसके परिवार को देखने तक का मौका नहीं दिया गया। सब कुछ इतना अचानक क्यों किया गया मैं समझ ही नहीं पाया। मेरे माता पिताजी ने क्यों घर के एक बड़े बेटे को इस घर के इतने बड़े फैसले में शरीक नहीं किया, ये मैं बिलकुल ही समझ नहीं पाया।
दूसरे दिन मैं अपनी गाड़ी लेकर रेलवे स्टेशन गया अपने माँ पिताजी और सबसे छोटे भाई सत्यार्थ को रिसीव करने। अपनी माँ को मैंने अपनी गाड़ी के पीछे बैठाया जबकि मेरे पिताजी और छोटा भाई टेम्पो से आने लगा। रास्ते में मैंने अपनी माँ से पूछा कि माँ क्या छोटू का रिश्ता तय हो गया है? माँ ने बड़े ही सहजता से जवाब देते हुए कहा कि "अभी कहाँ अभी तो हमने लड़की ही देखी है, छोटू छुट्टी में घर आएगा लड़की पसंद करेगा तभी बात फ़ाइनल होगा" मैंने फिर पूछा "कहीं तुमलोगों ने लड़की वालों से रुपये तो नहीं ले लिए" माँ ने सहज भाव से कहा "नहीं रे पैसे की जल्दी क्या है पहले छोटू को लड़की तो पसंद आ जाय" कुछ देर के बाद हम लोग घर आ गए और तभी मेरे पापा ने मेरी माँ से कहा "बीना हो, रुपयों को ठीक से गिन लीजिये और सैफ में रख दीजिये" इतना सुनना था कि मैं अपनी माँ को देखने लगा, मेरी माँ को काटो तो खून नहीं, उनकी झूठ पकड़ी गयी थी। आनन् फानन में मुझे लड़की का फोटो देखने के लिए दिया गया, फोटो देखकर मैंने उस फोटो को जमीं पर फेंक दिया और अपनी माँ से कहा "माँ तुम्हे ये लड़की किसी भी एंगल से छोटू के लायक लगती है क्या?, कैसे तुमने इसे छोटू के लिए पसंद कर लिया?" इतना कहकर मैं अपने कमरे के अन्दर चला गया फिर मुझे पता चला कि माँ ने फ़ोन करके छोटू को छुट्टी लेकर आने को कहा ताकि वो लड़की दो देख सके मगर उसने माँ को यही कहा जो तुम्हारी पसंद है, उसी से मैं शादी करूँगा। और फिर वो अपनी शादी के लिए आर्मी से 1 महीने की छुट्टी लेकर आया और उसकी धूम धाम से गाँव से ही शादी भी हो गयी मगर शादी के बाद जब छुट्टी ख़तम होने पर वो अपनी आर्मी की नोकरी ज्वाइन करने जम्मू गया तो उसने वहां से माँ को फ़ोन करके कहा कि "माँ मैं नोकरी ज्वाइन नहीं करना चाहता, मैं वापस आना चाहता हूँ, तुम यदि मन करोगी तो मैं यहीं कहीं घूमता रहूँगा मगर नोकरी ज्वाइन नहीं करूँगा" इसपर माँ ने उससे कहा कि "बेटा तुम घर वापस आ जाओ" और फिर मेरा छोटा भाई आर्मी की नोकरी छोड़ वापस अपने घर जमशेदपुर आ गया।
आज भी वो जमशेदपुर में ही अपनी माँ के साथ ही रह रहा है मगर बहुत कुछ बदल चूका है। आज की तिथि में वो एक नंबर का पियक्कड़ हो चुका है। उसका दिन दारू से शुरू होता है और दारू से ही दिन ढलता भी है। सिर्फ उसकी ही वजह से मैं अपनी पत्नी और एक्लोते बेटे के साथ NML कालोनी गोलमुरी में रह रहा हूँ और तनहा जीवन यापन कर रहा हूँ।
अब तो मेरा छोटा भाई छोटू अपनी माँ की ख़ुशी के लिए अपनी बीबी तक को लातों से भी मारने से परहेज नहीं करता है। उसका एक 4 साल का बड़ा प्यारा बेटा भी है, जो अपनी आँखों से ये सबकुछ देखता है। पता नहीं वो क्या समझता होगा जिन्दगी के मायने को। पता नहीं किन संस्कारों में वो अपना जीवन यापन करेगा। आज मेरा छोटा भाई छोटू और उसकी पत्नी और बेटे का पूरा खर्चा मेरे माँ और पिताजी ही उठा रहें हैं। अपने छोटे भाई को दिन प्रतिदिन अँधेरे की ओर गर्त में गिरते देख रहा हूँ, मैं मानसिक रूप से आहत हूँ समझ नहीं पा रहा हूँ कि मैं क्या करूँ?
शुक्रवार, 11 जून 2010
पिताजी का धन.
बात कई वर्ष पहले की है। मेरे पापा जो कि उस समय टिस्को में काम करते थे। वे अपनी सर्विस ना के बराबर ही करते थे। महीने में औसत 10 दिन की ही सर्विस करते थे। उनका सारा का सारा समय सिर्फ और सिर्फ जन सेवा और सामाजिक कार्य में बीतता था। उस वर्ष टिस्को में ESS का स्कीम आया, तो मेरी माँ और अन्य परिवार के लोगों ने पापा को समझकर ESS लेने को कहा और मेरे पापा ने ESS ले लिया। उस समय मैं NICT कंप्यूटर संस्थान में कंप्यूटर शिक्षक के रूप में कार्य कर रहा था। मैं घर का बड़ा बेटा था बावजूद इसके मुझे ये जानकारी नहीं कि उनके ESS लेने के समय उन्हें राशि मिली थी। मुझे अच्छे से याद है कि मेरे पापा ने उस समय श्री किशोर यादव जो कि NICT कंप्यूटर इंस्टिट्यूट के मालिक थे, उनके हाथों जबरदस्ती करके मेरे और मेरे छोटे भाई के नाम से सिंहभूम क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक में 50 - 50 हजार रुपये फिक्स करवा दिए थे। इस विषय पर मेरी और मेरे छोटे भाई ने अपने पापा से काफी बहस भी की थी, कि आखिर क्यों हमारे नाम से रुपये फिक्स कर रहें हैं। उस समय मेरे पापा ने कहा था "बेटा नौकरी का क्या भरोसा है? कम से कम ये फिक्स किये गए 50 हजार रुपये कल को 1 लाख बन जायेंगे, तो तुम लोग इससे कोई व्यापार तो कर सकोगे, तुम्हारे भविष्य के लिए ही मैंने ये रुपये फिक्स करवाए हैं" उनकी बातों से हम दोनों भाई कुछ हद तक संतुष्ट हुए थे।
इसी बीच हमारा नया घर बन गया और मेरी शादी हो गयी और मैं कुछ दिनों के बाद NICT कंप्यूटर इंस्टिट्यूट छोड़कर NML में प्रोजेक्ट असिस्टेंट के रूप में काम करने लगा। यहाँ का वेतन काफी कम था और अब मेरी जिम्मेदारी भी बढ़ गयी थी। मैं इस काम के साथ साथ एक नया व्यापार शुरू करने का खवाब देखने लगा। मेरे इस खवाब के पीछे वे ही रुपये थे जो कई वर्ष पहले पापा ने मेरे नाम से 50 हजार फिक्स कराये थे और कुछ ही महीने के बाद वो डबल होकर मिलने वाले थे। मैंने उन रुपयों को लेकर एक व्यापार आरम्भ करने की सोच राखी थी और इसके लिए सबसे पहले मैंने STD बूथ के नए कनेक्सन के लिए आवेदन दे दिया। मैं अपने पुराने घर में, जहाँ कि मेरे पापा अकेले रहते थे कुछ किरायेदारों के साथ, एक कंप्यूटर इंस्टिट्यूट और इसके साथ ही एक STD बूथ और उसमे xerox मशीन लगाने का सोचा था। इसके लिए मुझे मिलने वाली पूंजी कम लग रही थी, इसलिए मैंने अपने इस प्रोजेक्ट में अपने दोस्त संजीव गौर और विजय कुमार शर्मा को भी सम्मिलित कर लिया।
मैंने कंप्यूटर इंस्टिट्यूट के क्लास के लिए अपने पुराने घर के एक रूम में संशोधन करने के लिए मजदूर लगवा दिया। मैं सुबह पुराने घर पहुंचता और वहां अपने दोनों दोस्तों को आज के दिन का काम समझाता और फिर मैं NML के लिए निकल जाता और फिर NML से छुट्टी होने पर वापस अपने पुराने घर को आता और अपने दोस्तों के साथ बातें करता और मजदूरों को उनका उस दिन का पेमेंट कर देता और वापस अपने नए घर को आ जाता। कुछ दिनों तक मेरी येही दिन चर्या थी। इसी बीच मैंने कुछ पुरानी कुर्सियां सेकेण्ड हैण्ड दाम पर कंप्यूटर क्लास के लिए खरीद ली। और मेरे STD बूथ का कनेक्सन भी आ गया। सब कुछ तय किये अनुसार ही चल रहा था कि एक दिन मेरे NML से वापस आपने पर मुझे मेरी दोनों दोस्तों ने बताया कि तुम्हारे पापा पूछ रहे थे कि "आपलोगों के प्रोफिट में मेरा कितना प्रतिशत शेयर रहेगा, ये आप अपने दोस्त सुमन से पूछकर मुझे बताना"। मेरे दोस्तों ने इस सम्बन्ध में मुझे अपने पापा से बात करने को कहा। मुझे तो कुछ समझ में ही नहीं आया, मैंने सोचा कि शायद पापा ने मजाक किया होगा। अगले दिन जब मैं फिर NML कि छुट्टी होने पर वापस पुराने घर पंहुचा तो देखा कि काम बंद है, मुझे मेरे दोस्तों ने बताया कि "क्या यार तुमने अपने पापा से बात नहीं की थी क्या?" मैंने पुछा कि क्या हुआ? तो मेरे दोनों दोस्तों ने बताया कि आज तुम्हारे पापा ने हमसे कहा कि "क्या आपने सुमन से बात नहीं कि क्या, पहले अपने प्रोफिट में मेरी हिस्सादारी तय करे फिर काम बढ़ाएं" ये सुनकर मेरे दोस्तों ने मजदूरों से काम को बंद करने को कह दिया था। मुझे तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि आखिर क्या हो रहा है? क्यों आखिर क्यों एक पुत्र के व्यापार के प्रोफिट में एक बाप को हिस्सादारी चाहिए? मैंने तुरंत ही फैसला लिया और अपने दोस्तों से कहा "प्रोजेक्ट कैंसल" अगर हमें अपने व्यापार के प्रोफिट में हिस्सादारी ही देनी है तो क्यों ना हम 1 नंबर की जमीं में व्यापार करें क्यों हम 2 नंबर की जमीन में व्यापार करेंगे? इतना कहकर मैं घर वापस आ गया और रात भर येही सोचता रहा ही मेरे पापा ने जब किशोर भैया को कंप्यूटर लेने के लिए मेरे फिक्स किये गए पैसे के ऊपर लोन दिलवाया था तब तो उन्होंने किशोर भैया से उनके प्रोफिट में किसी तरह की हिस्सेदारी के बात नहीं की थी, आज जब उनका बेटा किसी तरह व्यापार करना चाह रहा है तो वे किस मुंह से अपने बेटे के प्रोफिट में हिस्सेदारी मांग रहें हैं? मैं अपने दोस्तों के साथ संपर्क में था और हमलोग आसपास ही किसी अच्छे जमीं कि तलाश में थे जहाँ हम लोग कंप्यूटर इंस्टिट्यूट खोल सके। इसी दौरान एक दिन तबियत ठीक नहीं लगाने के कारन मैं NML से दोपहर के समय अपने घर वापस आ गया। उस समय मेरे पापा उस घर में ही थे। थोड़ी देर के बाद मेरा छोटा भाई मेरे सामने आया और मुझे एक आवेदन पर दस्तखत करने को कहने लगा, मैंने पुछा कि क्या है तो उसने बताया कि पापा ने जो पैसे फिक्स करने के लिए आपके नाम से जमा कराया था वे रुपये डबल हो गए हैं, इसलिए पापा ये आवेदन पर दस्तखत करने को कह रहें हैं जिससे वे उन रुपयों को निकाल सकें। इतना सुनना था कि मुझे काटो तो खून नहीं, मेरी आँखों के सामने अन्धेरा छा गया। मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है, जिन पैसें के खवाब देखकर मैं क्या कुछ करना छह रहा हूँ वोही ................! मैंने दस्तखत करने से मना कर दिया इसके बाद तो घर में मानों भूचाल ही आ गया। आज मैंने इतनी बद्दुआ अपनी माँ के मुंह से सुनी कि मानो मेरा कलेजा ही कौंध गया। पापा तो पापा, माँ भी आज क्या से क्या हो गए थी, उन रुपयों के लिए जो कभी उन्होंने मेरे भविष्य के लिए मेरे नाम से जमा कराया था। आज मेरी नज़रों के सामने वो दिन था जबकि मेरे पापा कह रहे थे "बेटा नौकरी का क्या भरोसा?..............................................................." सबकुछ बदल गया था 6 से 7 वर्षों के दौरान सब कुछ बदल गया। सब कुछ टूट गया। दिल से लेकर जज्बात सब कुछ समाप्त हो गया।
बहुत कुछ मैंने सुना अपनी माँ के मुंह से मैंने वो बद्दुआ भी सुनी जो एक माँ कभी अपने बेटे को नहीं दे सकती। सब कुछ सुनाने के बाद मैंने उस आवेदन पर दस्तखत कर दिया। उसके बाद ना सिर्फ सारे के सारे रुपये निकाल लिए गयी बल्कि मेरा बैंक अकाउंट भी बंद कर दिया गया। इसके कुछ दिनों के बाद मेरे पापा ने मुझसे कहा "बेटा वो STD बूथ वाले लोग काफी दिनों से आ रहें हैं, यदि तुम्हें STD बूथ नहीं लगनी है तो पड़ोस के चौबे जी का बेटा बोल रहा था, तुम चाहो तो STD बूथ का कनेक्सन उसे बेच दो"
कुछ दिन के बाद मैंने वो कुर्सियां भी बेच दी जो कंप्यूटर क्लास के लिए मैंने खरीदी थी। मेरे मामले में मुझे ये एहसास हो गया कि पिता का धन पिता का या फिर माँ का होता है।
पूरे परिवार को संभालने और एक सूत्र में पिरोने का काम पिता ही करता है। अपने परिवार के हर जरुरत को पूरा करने का काम एक पिता ही करता है। अपने संतान के भविष्य के प्रति एक पिता समर्पित रहता है।
शुक्रवार, 4 जून 2010
मेरी एकतरफा मोहब्बत और तुम्हारी यादें.
दिनांक 31 अगस्त 2024 को अपडेटेड
- 1994 - आत्महत्या की मेरी नाकाम कोशिश के बाद जब मेरे दिल की धडकनों में तुम्हारी यादों ने एक नए जीवन के रूप में दस्तक दी। तुन्हारे निगाहों में ना जाने क्यों मुझे मेरे जीवन की डोर दिखाई दी।
- 1994 - "हम आपको लाइक नहीं करते" ये शब्द खुद तुम्हीं ने अपनी जुबान से हमें कहा था, जिसे हम बेइंतहा मोहब्बत करते थे। एक वाक्य ने मेरे अरमानों को तार तार कर दिया। मैं तो जीते जी ही मर चूका था।
- 1994 - एक तेरी तस्वीर जिसे देख देखकर मैं जीने की कोशिश कर रहा था, वो भी तुमने मुझसे छीन ने। क्या मिला तुम्हे मेरा सुकून छिनकर.
- 1995 - टूटे हुए दिल और टूटे हुए दिल के अरमानों के साथ किसी तरह से जीने की कोशिश कर रहे थे। तुम्हें चाहकर भी नहीं भुला पा रहे थे। तुम्हारी यादें को अपने जीने का सामान बना लिया था.
- 1996 - 23 जनवरी, को जब भाभी के घर तुम्हारी सहेलियों के साथ तुमसे आमना सामना हुआ और मैंने अपने हाथ पर लिखे हुए तुम्हारे नाम को काट दिया। एक बार फिर से तुम्हे भूलने की एक और नाकाम किशिश की.
- 1997 - तुम्हारे बिना दुर्गा पूजा का कोई महत्व ही नहीं रहा, तुम दुर्गा पूजा में जमशेदपुर से बाहर गई हुई थी और मैं यहाँ दुर्गा पूजा के पुरे सप्ताह तुम्हारे दीदार को तड़पता रहा।
- 1998 - 19 मई, जब तुम मेरे पड़ोस के घर को छोड़कर हमेशा हमेशा के लिए अपने नए घर को जा रही थी खून के आंसू रोया तुमसे बिछड़कर। दिल के अरमानों को दिल में ही तड़पते अपने दिल की नज़रों से महसूस किया था मैंने, तुम्हे तो इसका आभास भी नहीं।
- 1999 - 7 मार्च, उस घर को छोड़ मैं भी चला गया जहाँ मुझे तुम्हारी मोहब्बत ने एक नयी जिंदगी दी। अपने साथ तुम्हारी कई यादों को भी एक नए घर में लेता आया।
- 1999 -दुर्गा पूजा की अष्टमी को मैंने लाल बिल्डिंग दुर्गा पूजा पंडाल के सामने तुम्हारे साथ कुछ अच्छा व्यवहार नहीं किया था। इस दिन पता नहीं मुझे क्या हो गया था मैं अपने आप में ही नहीं था। मुझे माफ़ करना.
- 2000 - 16 जून, अनिल चौधरी के पापा का निधन कोलकता में मेरी नज़रों के सामने हुआ। मैंने उनके मौत का पल पल का एहसास किया। तुम्हारी यादों ने आज मुझे बेजार कर दिया।
- 2000 - अक्टूबर, मैं जमशेदपुर छोड़कर बरोनी चला गया मगर तुम्हें कैसें बताऊँ एक दिन भी ऐसा नहीं बिता कि तुम्हारी यादों ने मेरी निगाहों से अश्क नहीं बहाया हो। वहां जाकर तो मैं और भी बेचैन हो गया। मेरा जीना मुश्किल लग रहा था। तुम मुझे इतना परेशां कर रही थी कि मुझे वापस जमशेदपुर कुछ ही दिनों के बाद आना पड़ा।
- 2000 - 4 नवम्बर, आज तुमने मुझे अपनी सहेली के द्वारा गुटखा खाने से मना किया। ये मेरे लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं था क्यूंकि जिसे मेरी मोहब्बत से परहेज था, जिसके दिल में मेरे लिए कोई जगह ही नहीं थी तो आखिर क्यों फिर वो मेरे व्यक्तिगत जीवन में दखल देने का काम कर रही थी। इसका जवाब जानने के लिए मैंने तुम्हारी उस सहेली से तुम्हारी मुलाक़ात कराने को कहा। मैं बेचैन हो उठा था। ये करके तुमने मुझे इतना परेशां कर दिया था कि मेरा जीना दुश्वार हो गया था। मैं अपने टूटे हुए दिल में टूटे हुए अरमानों के साथ सिहर गया था।
- 2000 - 29 नवम्बर, अपनी मोहब्बत से मेरी पहली और शायद आखिरी व्यक्तिगत मुलाक़ात अंततः हुई। अपने आप को काफी बांधकर मैं वहां गया था और कुछ ना नुकर के बाद कुछ देर इधर उधर की बातें हुई। मैं पूरे तैयारी के साथ वहां गया था। अपने टूटे हुए दिल और टूटे हुए अरमानों के साथ मैंने अपनी मोहब्बत से सम्बंधित कोई बात तक नहीं की। इसी दिन तुमने मुझे खुद को भूलने की बात कही, तुमने कहा कि "आप शादी कर लीजिये मुझे भूल जाइये"। शायद तुम्हारी निगाहों में शादी करके कोई दिल के रिश्तों को आसानी से भूला सकता हो।
- 2001 - 20 मई, एक बार फिर से मैंने आत्महत्या की कोशिश करनी चाही मगर मेरी निगाहों के सामने तुम्हारी तस्वीर आ गयी, ना जाने क्यों दिल में बस तुमसे एक अंतिम मुलाकात की ख्वाहिश उठी। इस मुलाकात के बाद जिन्दगी छोड़ देने का मैंने संकल्प ले लिया। ये मेरा अंतिम फैसला था। इसकी जानकारी मैंने सिर्फ कृष्णा दीदी को दी.
- 2001 - 22 मई, मैंने तुम्हारी सहेली से बस एक अंतिम मुलाकात का मेसेज भेजवाया, लेकिन जवाब नहीं के रूप में मिला। मुझे पता चला कि मेरे मिलने के अनुरोध पर तुम काफी गुस्से में कह रही थी "अब क्यों मिलना चाहता है वो मुझसे?" मैं एक बार फिर से टूट गया। तुमसे मुलाकात एक अंतिम मुलाकात की ख्वाहिश मेरी अधूरी ही रह गयी और मैं फिर से एक जिन्दा लाश बनकर जीने को विवश हो गया।
- 2001 - 10 जून, आज मुझे तुम्हारे B.Com फ़ाइनल इयर का रिजल्ट पता चला। मुझे पता चला कि तुम 2nd क्लास से पास हो गई हो। तुम्हे नहीं पता आज मैं कितना खुश हूँ। इश्वर तुम्हे खुशहाल जिन्दगी दे.
- 2001 - 29 अक्टूबर, आज तुम इंस्टिट्यूट आई और दशमी के उपलक्ष्य में मुझे, किशोर भैया, लिजु और संजीव को विजया के लिए खुद अपने घर बुलाई और हमलोग विजया के लिए तुम्हारे घर गए। ये पहली बार हुआ कि हमलोग जिस रूम में बैठे थे तुम भी उसी रूम में हमारे साथ बैठी रही, अन्यथा इससे पहले कई बार मैं तुम्हारे घर गया था कभी पूजा करके प्रसाद देने के बहाने कभी कुछ और के बहाने मगर हर बार येही होता था कि मैं जिस रूम में बैठता तुम भूल से भी उस रूम में दाखिल तक नहीं होती। तेरे दीदार के लिए मैं बहाने बनाकर तुम्हारे घर गया करता मगर मेरी निगाहें तुम्हारे दीदार को प्यासी की प्यासी ही रह जाती थी। आज वाकई सब कुछ बदला बदला सा था। इश्वर का शुक्रिया.
- 2001 - 2 नवम्बर, आज मुझे तुमने अपनी सहेली से यह मेसेज भिजवाया कि तुम मुझसे मिलना चाहती है, जिसे मैंने ठुकरा दिया। मेरी निगाहों में कुछ माह पहले ही मेरे मुलाकात के पेशकश को तुम्हारे द्वारा ठुकरा दिए जाने का दृश्य सामने आ गया और साथ ही वो कमेन्ट "अब क्यूं मिलना चाहता है वो मुझसे" जो तुमने मेरे उपर की थी, उसकी याद ताजा हो गयी। यही कारन था कि मैंने तुम्हारे मुलाकात करने के अनुरोध को ठुकरा दिया। मैंने ठीक किया या गलत इसका मुझे कोई इल्म नहीं लेकिन मैं इतना जरुर जनता हूँ कि अब मुझमें तुम्हारा सामना करने की हिम्मत नहीं। मैं टूट चूका हूँ, अन्दर से पूरी तरह से बिखर चूका हूँ। शायद तुम्हारा सामना होते ही मैं अपने आप से बाहर ना हो जाऊं इसका मुझे डर सता रहा था।
- 2001 - 19 नवम्बर, आज मौसमी की शादी कदमा के किसी क्लब में हो रही है। मुझे ये जानकारी मिली कि तुम्हारे घर से तुम्हारी बड़ी बहन आ रही है और शायद तुम नहीं आएगी इसलिए मैंने शादी में जाने का निर्णय लिया। मैं ऐसे किसी भी जगह जाने से परहेज करता था जहाँ तुम्हे भी पहुँचाना हो। मगर आज मुझे जो जानकारी मिली थी उसके अनुसार तुम मोसमी की शादी में नहीं जाने वाली थी इसलिए मैं वहां गया था। इस शादी में मेरे अलावे मेरे कई दोस्त भी पहुंचे थे। मैं क्लब के अन्दर बैठा ही था कि कुछ देर बाद मैंने देखा कि तुम क्लब के अंदर आ रही है। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि ये कैसे हो गया। कुछ ही देर बाद मुझे कृष्णा दीदी ने आवाज देकर अपने पास बुलाया मैंने देखा कि कृष्णा दीदी और तुम दोनों आस पास ही कुर्सी पर बैठे हुए हो। मैं सहमते हुए उनके सामने पहुंचा तो कृष्णा दीदी ने पुछा क्या बात है जब ये मिलने को बुलाई थी तो तुमने मना क्यूं कर दिया था। मैंने इसका कोई उत्तर नहीं दिया। कृष्णा दीदी ने अपने बगल की खली कुर्सी पर मुझे बैठने को कहा, मैं बैठ गया। इसके बाद कृष्णा दीदी ने मेरे हाथों में तुम्हारा हाथ देते हुए कहा "लो और तुम्हे क्या चाहिए" पहली बार जिंदगी में मैंने तुम्हारे हाथों का स्पर्श किया और फिर लगभग कुछ ही सेकेण्ड के बाद मैंने तुम्हारे हाथों को अपने हाथों से हटाते हुए ये कहा कि "मुझे तो जीवन भर का साथ चाहिए" और फिर मैं वहां से दूर चला गया और ग्रुप बनाकर अपने दोस्तों के साथ बैठ गया। कुछ देर बाद कृष्णा दीदी अपने साथ तुम्हे लेकर हमलोगों के पास आई और वहां बैठ गयी। तभी तुम्हे न जाने क्या हुआ और तुम जोर जोर से रूक रूककर खांसने लगी, मैं बेतहासा दौड़ा पानी की तलाश में, मुझे क्या हुआ ये मैं नहीं जानता मगर पहली बार ऐसा लगा कि तुम्हे मेरी जरुरत है। मैं भागता हुआ क्लब से बाहर रखे पानी के ड्रम से एक ग्लास पानी लेकर अन्दर आया, ये देखकर मेरे सारे के सारे दोस्त और कृष्णा दीदी भी जानबूझकर खांसने लगी, मैंने सबों को सॉरी बोलते हुए पानी के उस ग्लास को तुम्हारे हाथों में रख दिया। मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकता उस समय मुझे कितनी आत्मसंतुष्टि मिली थी कारन कि मैंने तुम्हारे लिए कुछ तो किया था। कुछ देर के बाद कृष्णा दीदी ने कहा कि चलो हमलोग एक एक कर गाना गातें है, एक एक कर के सभी गाना गाने लगें जब मेरी बारी आई तो मैंने, "दो बातें हो सकती हैं सनम तेरे इनकार की.........." गाना गाने लगा और कुछ देर के बाद मेरा गला भर आया और मैं रोने भी लगा। फिर मैंने एक गुस्ताखी की मैंने अपने दोस्त लिजु के शर्ट के पीछे "I Miss U" पेन से लिख दिया क्यूंकि मुझे पता था कि मेरी मोहब्बत को छोड़ने लिजु ही जायेगा और मैं अमर भैया के साथ गाड़ी पर बैठकर घर वापस आ गया। मेरी इस खता पर लीजे मुझसे बहुत ही नाराज़ भी हुआ था। सॉरी लिजु, मुझे माफ़ करना।
- 2002 - 14 मार्च, आज मैंने तुम्हारे नाम कुछ लिखकर तुम्हारी सहेली को दिया तुम्हे देने के लिए, इसमें तुम्हारे ही घर से सम्बंधित कुछ जानकारी थी जो मुझे लगा कि तुम्हे मालूम होनी चाहिए थी इसलिए मैंने लिखकर इसे तुम्हे भेजा।
- 2002 - 22 मार्च, अपनी सहेली के द्वारा तुमने मुझसे मुलाकात की ख्वाहिश की जिसे मैंने ठुकरा दिया। मुझे माफ़ करना, अब शायद मुझमें तुम्हारा सामना करने की हिम्मत ही नहीं बची।
- 2002 - 2 अप्रैल, आज मुझे तुम्हारी बड़ी बहन से ये पता चला कि बीते कल (1 अप्रैल 2002) को जब मैं पूजा करके वापसी के क्रम में आपके घर प्रसाद देने गया और कालबेल बजाया तो दरवाजे तक पहुँच कर भी आपने दरवाजा नहीं खोला और दुबारा अंदर जाकर अपनी माँ से बोल दिया कि माँ देखो कोई बाहर आया है। मुझे तो पहले से ही जानकारी थी कि आपके दिल में मेरे प्रति नफ़रत कैद है मगर इतनी नफरत कैद है इसकी जानकारी मुझे नहीं थी।
- 2002 - 4 अप्रैल, आज मैंने अंतिम बार अपने दिल के भावनाओं को शब्दों में उतार कर तुम्हें देने को 3 अलग अलग पत्र तुम्हारी सहेली को दिए। मैं आज तक नहीं जानता वे पत्र तुम तक पहुंचे भी या नहीं। मैं तो बस इतना जानता हूँ कि मैंने प्यार किया था एक ऐसी लड़की से जिसे मेरी मोहब्बत से कोई सरोकार नहीं था, मैंने पल पल उस सख्स के इंतज़ार में गुजार दिया जिसके दिल में मेरी मोहब्बत के लिए शायद कोई जगह भी नहीं थी, मैंने अपना जीवन उसकी निगाहों में देखने का गुनाह किया था जिसके मन में मेरे लिए सिर्फ और सिर्फ नफ़रत कैद थी।
- 2002 - 30 अप्रैल, आज मेरा विवाह होने वाला है। पूजा करके प्रसाद देने के बहाने तुम्हारे घर के दरवाजे तक पहुंचा, मंशा थी तुम्हारे दीदार की, तुमसे दो शब्द बातें करने की मगर शायद मेरे इश्वर (तुम्हें) ये मंजूर नहीं था।
- 2002 - 2 मई, आज मेरी शादी का रिसेप्सन है। मुझे कम उम्मीद थी कि तुम आयोगी, मगर मेरी उम्मीद धरी की धरी रह गयी और तुम मेरे रिसेप्सन में आये, इसके लिए तुम्हारा धन्यवाद. तुमने मेरी पत्नी के बारे में मुझे कुछ कहा भी "बहुत सुन्दर पत्नी मिली है" मैं कुछ जवाब नहीं दे पाया। क्या सुन्दरता से अंतर्मन प्रभावित होता है? ये शायद तुम नहीं समझ सकती। मैंने कृष्णा दीदी और तुम्हारी दीदी के सामने तुम्हारे चरण छुए, क्यूं ये शायद तुम इस जन्म में समझ नहीं सकती। आज तक मैं तुमसे अपनी मोहब्बत का हक मांग रहा था, तुम नहीं समझ पा रही थी, तुमने राधा का हक मुझे तो दिया नहीं कम से कम मीरा का हक तो मुझे दे दो।
- 2003 - दिसम्बर, आज तुम्हारी शादी के रिसेप्सन में मैं अपनी पत्नी के साथ गया, विवाह के जोड़े में तुम बहुत सुंदर दिख रही थे। मैं कुछ भी लिख नहीं सकता। इश्वर तुम्हारे वैवाहिक जीवन खुशहाल रखे।
- 2004 - 18 अगस्त, आज मुझे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है। मैं खुश हूँ कि नोर्मल डिलीवरी हुई। तुम्हारी याद आ रही है। कहाँ हो, कैसी हो?
- 2004 - दिसम्बर, जीना बेहाल हो गया है, मैं क्या से क्या हो गया हूँ। मेरी जिन्दगी बद से बदतर हो रही है।
- 2005 - मार्च, कुछ भी समझ से परे है। क्या हो रहा है? इश्वर क्या चाहता है? मेरा जीवन क्या से क्या हो रहा है? तुम कहाँ हो? इश्वर तुम्हे खुश रखे।
- 2006 - 20 जून, आज मैं दुर्गापुर आया हूँ और यहाँ मैंने परमानेंट पोस्ट पर सहायक के रूप में ज्वाइन कर लिया है। तुम्हे मिस कर रहा हूँ। कैसी हो, तुम्हारी कोई खबर ही नहीं, खुश रहो जहाँ भी रहो। तुम्हारे बिना जीवन सुना सुना लग रहा है। तुम खुश हो बस येही दिल का अरमान है।
- 2006 : 2010 - कुछ भी तो नहीं बदला, आज भी ना जाने क्यूं लगता है जैसे तुम पास ही तो हो निगाहों के निगाहें बंद भी रखता हूँ तो भी तुम्हे करीब पाता हूँ अपनी सांसों के। क्या मोहब्बत को भुला पाना इतना आसान है जैसा कि तुम समझती हो। क्या मैंने कोई गुनाह किया था जिसे मैं भूल जाऊं, मैंने तो सब कुछ तुम्हारे ऊपर निछावर कर दिया, अपना बिता कल अपना आने वाला कल और अपना वर्तमानं। तुम्हारे दीदार की अब कोई अभिलाषा नहीं। तड़पना तो शायद मेरी किस्मत में ही लिखा है। मैं कल भी तड़प रहा था, मैं आज भी तड़प रहा हूँ और मैं कल भी तड़पता ही रहूँगा। तुम मुझे समझ ही नहीं सकी, मेरे जज्बातों को समझ ही नहीं सकी, इसका मुझे ताउम्र दुःख रहेगा। तुम्हारे दिल में मेरी भावनाओं की कोई क़द्र ही नहीं, ना बीते कल थी, ना आज है और ना ही कल को रहेगी, ये मैं जानता हूँ बावजूद इसके आज भी मेरे दिल में तुम्हारी वो मोहब्बत जिन्दा है। फर्क सिर्फ इतना है मैं अब पहले की तरह तुम्हे याद करके खुल के रो नहीं सकता, तुम्हारे लिए दो शब्द अब अपनी डायरी में लिख नहीं सकता। जमाना, समाज क्या कहेगा? एक बात कहूँगा उन सबके लिए जो किसी को सच्ची मोहब्बत करतें हैं, यदि उन्हें अपनी मोहब्बत का साथ जीवन में नहीं मिले तो भूलकर भी किसी और से शादी करके अपना और अपनी पारिवारिक जिन्दगी को बर्बाद करने की गलती ना करे। मैं तो दोहरी जिंदगी जीने को विवश हूँ। क्यूं मेरे साथ ये सब हुआ ये मैं नहीं जानता, तुम्हारी इसमें कोई गलती मैं नहीं देता। मैं मजबूर कल भी था, आज भी हूँ और आजीवन रहूँगा, बस इतना मैं जानता हूँ। तुम जहाँ रहो खुश रहो, इश्वर से मैं बस यही दुआ करता हूँ.
- मार्च 2014 - मेरे हाथ एक निगेटिव लगी, देखने पर पता ही नहीं चल रहा था कि किसकी तस्वीर है। पिछले दिनों ही इसे साफ करवाया, तस्वीर देखने पर मैं वर्ष 1995 के समय में वापस चला गया जब यह फोटो मेरे आंखों के सामने आयी थी। यह तेरी ही तस्वीर है जिसमें तुम नार्मल ड्रेस में अपने घर के पलंग पर बैठी हुई हो और किसी के द्वारा फोटो लेने पर तुम अपने ही हाथों से अपने चेहरे को ढंकने की नाकाम कोशिश कर रही हो। यह तस्वीर मेरे हाथों के सामने है और मैं अपने आपको लगभग 20 वर्ष पहले ले जा चुका हॅूं। वो सारे दिन, वो सारी रातें, वो बेकरारी के लमहें वो तेरी तस्वीर रखने की खता-सजा जो मैंने पायी सब कुछ मेरे आंखों के सामने परत दर परत के आ जा रही है। सिर्फ तुम्हारी एक फोटो अपने पास वो भी ग्रुप फोटो, रखने की बहुत बडी कीमत मैंने चुकाई थी वर्ष 1994 में और आज जबकि वर्ष 2014 चल रहा है मेरे कम्प्युटर में तुम्हारी लगभग 20 पुरानी से लेकर ताजा फोटो भरी पडी है जिसे लगभग रोजाना ही एक बार मैं अपने आंखों से निहार लेता हॅूं। तुम्हारा दीदार शायद अब संभव नहीं लेकिन मुझे तो कभी ऐसा महसूस ही नहीं हुआ पिछले 20 वर्षों में कि तुम मुझसे दूर हो । ईश्वर तुम्हें खुश रखे।
- अगस्त 2019 - तुम्हारी याद बहुत आ रही है।
- 31.08.2024 - तुमसे लगभग 21 वर्षो के बाद मुलाक़ात हुई. ईश्वर का ह्रदय से आभार. जीवन से अब कुछ की अभिलाषा नहीं बची.
मेरा जीवन और भूली बिसरी यादें.
3 मार्च 1978 को मेरा जन्म जमशेदपुर में हुआ। मेरे पापा टाटा स्टील में परमानेंट थे। मेरी माँ हाउस वाइफ थी। पिताजी टाटा स्टील के वर्कर कम एक समाजसेवक ज्यादा थे। मेरे जन्म से पहले मेरे माता पिता दोनों ही गायत्री युग निर्माण योजना से संस्थापक पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी से और उनकी संस्था से जुड़े हुए थे और वे दोनों ही श्री आचार्य जी से सत्संग मण्डली में भजन आदि के कार्यक्रम करते थे। मेरे जन्म के बाद मेरे माता पिता दोनों ही पारिवारिक रूप से अपना जीवन यापन करने लगे। बागबेरा रेलवे कालोनी, लाल बिल्डिंग जो कि टाटानगर रेलवे स्टेशन से महज 2 किलो मीटर की दूरी पर स्थित है, वहां मेरी परवरिश एक झोपडी नुमा मकान में हुई। रेलवे की जमीन पर अतिक्रमण कर यहाँ मेरे पापा ने कुछ घर बनाए थे जिसमें हमलोग रह रहे थे और साथ ही साथ कुछ घरों को भाड़े पर लगाया गया था। मैंने अपना बचपन और जवानी दोनों इसी घर में बिताया।
इस घर के आस पास रेलवे के घर थे जिसमें रेलवे में काम करने वाले कर्मचारी रहते थे। आस पास के लोगों से हमारा ताल्लुक ना ही के बराबर था। बचपन से लेकर जवानी तक पड़ोसियों से कोई सम्बन्ध नहीं के बराबर रहा। जमशेदपुर में हमारे कई अपने सगे रिश्तेदार रहते थे, मेरी पापा के छोटे भाई अपने परिवार के साथ ही जमशेदपुर में ही रह रहे थे, मेरी पापा के बड़े भाई के बड़े बेटे भी अपने परिवार के साथ ही जमशेदपुर में ही रह रहे थे लेकिन आज तक इनसे ना जाने क्यूं रिश्तेदारी नहीं बन पाई। कभी मुझे लगा ही नहीं कि हमारे अपने खून के रिश्तेदार भी यहाँ रहते हैं। कभी मैं अंकल/चाचा शब्द के मर्म का एहसास नहीं कर पाया। कारन जो कुछ भी हो मगर मैं तरसता ही रहा अपने रिश्ते नातों को।
जब से मैंने होश संभाला अपने घर में एक बुजुर्ग को कई कठोर काम करते पाया जो इतने उम्र वाले लोग कर ही नहीं सकते। मेरे घर में वो बुजुर्ग मेरे जन्म से भी कई वर्ष पहले से रह रहे थे और कई तरह के घरेलु काम उनके द्वारा किया जाता था बदले में उनका रहन खाना हमारे घर में होता था। मैं उन्हें नाना कहकर संबोधित करता था। उनका वास्तविक नाम साधू तांती है इसकी जानकारी मुझे कई वर्षों के बाद ही हुई। ये एक कटु सत्य भी है कि वास्तव में मुझे अपने नाना से भी ज्यादा स्नेह उनसे ही मिला। और मेरे घर में किरायेदार के रूप में एक अंकल रहते थे जिसे मैं नारायण चाचा कहकर संबोधित करता था। मैंने चाचा का स्नेह बचपन से लेकर आजतक सिर्फ और सिर्फ उनसे ही पाया। जब भी में अपने जीवन के बुरे दौर से गुजरा सहारे के रूप में मैंने सिर्फ और सिर्फ नायारण चाचा को ही पाया। आज तो मेरे बीच मेरे नाना नहीं हैं मगर मैं उनकी यादों को भूला नहीं सकता। वो भी क्या दिन थे जब मेरे नाना मुझे लेकर पैदल ही मेरे घर लाल बिल्डिंग से बिस्टुपुर चले जाते थे राशन लाने के लिए और इस तरह हम दोनों के 25 पैसे बस किराये के बच जाते और फिर वापस आने समय मेरे नाना उन पैसों से मुझे होटल में बैठाकर गुलगुला खिलाते थे।
मेरे नारायण चाचा जी आज भी जमशेदपुर में ही अपने परिवार के साथ रह रहें हैं। उनसे मेरी मुलाक़ात होती ही रहती है। 1 से लेकर 8 वीं क्लास तक मैंने अपनी पढाई पंडित नेहरु मध्य एवं उच्च विद्यालय बागबेरा में की। वर्तमान में इस स्कूल की हालत खस्ता है। इस स्कूल के कई शिक्षकों से आज मेरी मुलाकात होती ही रहती है। चाहे वो महेश सर जी हों, भूपेंद्र सर और जीतेन्द्र सर से भी मुलाकात होती ही रहती है। मेरे जीवन में इस स्कूल की कई सारी यादें जुडी हुई हैं। इसकी बाद की पढाई मैंने क्लास IX, X और मेट्रिक की MRS K M P M स्कूल, बिस्टुपुर से की।
1991 में मेरे पापा ने टिस्को का घर ECC Flats, कदमा में ले लिए और हमारा परिवार सिर्फ पापा को छोड़ बाकि सब कदमा चले गया। एक बस्ती इलाके से फ्लैट में जाना क्या सुखद संयोग था हमारे लिए। वहां का माहोल एकदम ही निराला था। बागबेरा के घर की तुलना में वहां हमेशा ही बिजली पानी की सुविधा थी। बड़े बड़े रूम थे। हम लोग रूम के अन्दर क्रिकेट खेलते थे। मेरे पापा ने इसी बीच सेकंड हैण्ड राजदूत खरीद लिया उनका कहना था कि वे रोजाना ही गाड़ी से दूध लेकर बागबेरा से कदम पहुंचाया करेंगे लेकिन कुछ दिनों बाद सब कुछ मेरे सर आ गया मैं पापा वाली पुराणी साईकिल से KMPM स्कूल जाता और आता और रोजाना ही दूध लेने कदम से बागबेरा आता और जाता था। पापा ने परिवार को लगभग नजरंदाज करना शुरू कर दिया। कुछ ही महीने हुए होंगे कि माँ ने पापा के कारन कदम का वह फ्लैट छोड़ दिया और वापस हमलोग वही पुराने माकन लाल बिल्डिंग बागबेरा वापस आ गए। एक तरह से मैं ये कह सकता हूँ कि हमलोगों को कुछ दिनों के लिए स्वर्ग नसीब हुआ था।
किसी तरह से मैंने 1995 में मेट्रिक पास किया। मेरा क्लास X का रिजल्ट बहुत ही खराब था। वो तो मेरी माँ के दबाब और लगन का ही प्रतिफल था कि उन्होंने मुझे पढ़ने के लिए पड़ोस के एक सर श्री पप्पू भैया से बात की और मुझे वहां पढने के लिए भेजा। क्लास X के रिजल्ट से मेट्रिक की परीक्षा के बीच के समय लगभग 3 से 4 महीनों में ही मेरी तैयारी कुछ हद तक सही हो सकी। इसका पूरा का पूरा श्रेया मेरी माँ को ही जाता है। अगर माँ मेरे पीछे नहीं होती तो शायद में सामान्य पढाई भी नहीं कर पता क्योंकि मेरे पापा को किसी के पढाई से कोई मतलब नहीं था।
1995 में मैंने इंटर पास किया। इसकी बाद मेरी माँ की ही वजह से मैंने कंप्यूटर कोर्स में एड्मिसन ले पाया। सबसे पहले मैंने कंप्यूटर क्लास 6 महीनों के लिए आदियापुर में किया। उसके बाद अपने ही इलाके के कॉमर्स टीचर श्री तारा भैया के यहाँ लगभग 1 साल तक कंप्यूटर कोर्स किया। इसी बीच हमारे ही इलाके में एक नया कंप्यूटर इंस्टिट्यूट खुला था वह भी मैंने एक स्टुडेंट के रूप में दाखिला लिया लेकिन कुछ ही दिनों बाद वहीँ मैं कंप्यूटर शिक्षक के रूप में कंप्यूटर की क्लास लेने लगा। NICT कंप्यूटर जो कि लाल बिल्डिंग चौक पर स्थित है और जिसके मालिक श्री किशोर यादव हैं, वहीँ मैं 1997 से 2002 तक शिक्षक के रूप में कार्य करता रहा। इसी बीच अप्रैल 2002 में मरा विवाह करा दिया गया। मेरे काफी ना नुकर के बाद पारिवारिक दबाद के आगे मैं झुक गया और अंततः 30 अप्रैल 2002 को मेरा विवाह हुआ।
अगस्त 2002 को मैंने NML जमशेदपुर में परियोजना सहायक के रूप में कार्यभार संभाला और मेरी पोस्टिंग हिंदी ऑफिसर श्री पुरुषोत्तम कुमार के अधीन हिंदी विभाग में हुई। यहाँ मैं 2002 से अप्रैल, 2006 तक कार्य करता रहा। इसी बीच मैंने CMERI दुर्गापुर में परमानेंट सहायक के पड़ हेतु परीक्षा दिया और CMERI दुर्गापुर में सहायक के पोस्ट पर मैंने 20 जून, 2006 को कार्य भार ग्रहण किया।
अफसरों के मदद और अपनों के आशीर्वाद से मैं 1 सितम्बर 2008 को CMERI दुर्गापुर से ट्रान्सफर होकर वापस NML जमशेदपुर एक परमानेंट पोस्ट के साथ ज्वाइन किया। वर्तमान में मैं यहाँ बिल अनुभाग में कार्य कर रहा हूँ और आयकर के कार्य के अलावा वैज्ञानिको, तक्नीकी अधिकारीयों और सामान्य संवर्ग अधिकारिओं के वेतन बिल बनाने, GPF, LTC बिल आदि का कार्य कर रहा हूँ। जितना काम मैंने NML में सिखा उतना मैं CMERI दुर्गापुर में नहीं सिख पाया था।
बुधवार, 2 जून 2010
साईकिल का अरमान
बात उन दिनों की है जब मैं 1995 में इंटर पास करके B Sc. (Math) में नामांकन कराया था। उस वक़्त मैंने tuition के लिए आदर्श नगर, सोनारी में कोपरेटिव कालेज के प्रोफेसर के यहाँ अपना नामांकन कराया। मेरे घर से सोनारी की दूरी लगभग 10 किलो मीटर थी। मेरे पास वोही पुरानी साईकिल जो मेरे पापा की थी जिसका उपयोग मैं 1992 से करता आ रहा था। इसी साईकिल से मैंने KMPM स्कूल, बिस्टुपुर जाकर क्लास IX और X की पढाई की और मेट्रिक पास किया, इसी साईकिल से मैं KMPM इंटर कॉलेज, बिस्टुपुर जाकर XI और XII की पढाई की और इंटर पास किया। अब चूँकि मैंने SP कॉलेज, parsudih में Graduation के लिए अपना नाम लिखा लिया था और tuition के लिए मुझे सोनारी जाना पड़ रहा था इसलिए मैंने अपने पापा से एक नयी साईकिल के लिए कहा। ऐसा नहीं कि मैंने अपनी साईकिल के लिए पहली बार अपने पापा से कही हो, ये मैं विगत 4 वर्षों से उनसे कहता आ रहा था, लेकिन मुझे नयी साईकिल नहीं मिल रही थी। मगर इस बार मैं जिद पर आ गया और मैंने भूख हड़ताल कर दी और कहा कि जब तक मुझे नयी साईकिल नहीं मिलेगी मैं खाना नहीं खाऊंगा।
अंततः मेरे पापा मुझे लेकर साईकिल खरीदने के लिए घर से निकले। हम दोनों पैदल ही जा रहे थे। मेरा रोम रोम नयी साईकिल मिलने की ख़ुशी में हर्षित हो रहा था। मैं येही सोचता जा रहा था कि मैं मोटे चक्के वाला हीरो रेंजर साइकिल ही लूँगा। हीरो रेंजर साइकिल की तमन्ना मेरे मन में विगत 4 वर्षों से थी। अपने साथ के लड़कों को अच्छी साईकिल पर चलते देख मुझे अपनी साइकिल पर बैठने में खराब महसूस होती थी। मैंने कैसे कैसे करके मेट्रिक से इंटर का सफ़र पार किया लेकिन जब graduation में पंहुचा तो में इसे बर्दास्त नहीं कर सका। मुझे अपनी जिद को हकीकत का जमा पहनने के लिए अंततः भूख हड़ताल का ही सहारा लेना पड़ा।
मुझे याद आ रहा था वो लम्हा जब हमारे घर में टीवी नहीं थी, उस वक़्त बुधवार और शुक्रवार को रात 8 बजे चित्रहार DD1 पर प्रदर्शित होता था जिसमे नए नए फ़िल्मी गाने दिखाए जाते थे, उसे देखने के लिए मैं बगल वाले घर के पीछे के जंगले पर किसी तरह कूद कादकर इसे देखता था और रविवार को जब रामायण का समय होता था मैं और मेरे छोटे भाई लाइन लगाकर काफी समय पहले से बगल वाले के घर के दरवाजे के बाहर खड़े रहते थे, बगल वाले अंकल का जब मन करता तब अपना दरवाजा खोलते थे कभी वक़्त पर तो कभी काफी समय के बाद। एक दिन जब उन्होंने रामायण ख़त्म होने के बाद अपना दरवाजा खोला और मुझसे ये कहकर कि चलो जाओ अपने घर रामायण तो ख़त्म हो गया है, मुझे बहुत ही खराब लगा था, उसी दिन मैं घर आया और भूख हड़ताल पर बैठ गया और अपनी माँ से मैंने येही कहा अब तो मैं तभी खाना खाऊँगा जब मेरी घर में अपनी टीवी आएगी। और फिर अंततः मेरे घर में टीवी आ ही गई। ऐसा नहीं था कि टीवी के लिए घर में इससे पहले बात नहीं हुए कई वर्षों से हमलोग अपने पापा से एक टीवी लाने के लिए कह रहे थे मगर पता नहीं क्यूं टीवी घर में नहीं आ रहा था। ऐसा भी नहीं था कि मेरे पापा के औकात नहीं थी या फिर वे बेरोजगार थे। वे तो टिस्को में परमानेंट थे और साथ ही बहुत सारे घर किराए पर दिए हुए थे फिर भी ना जाने क्यूं हम तरसते रहे हर उस छोटी छोटी चीज के लिए जो एक सामान्य घर के लिए बहुत ही जरुरी होती है।
साइकिल के लिए जाते समय रास्ते भर मेरे दिमाग में पुरानी बातें याद आ रही थी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्यूं आखिर क्यूं हमारे साथ ये सब कुछ हो रहा है। क्यूं महज एक साईकिल के लिए भी पापा तैयार नहीं हो रहे थे। मेरे कदम जैसे जैसे आगे बढ़ रहे थे मेरी निगाहों के सामने मेरा वो ही अरमान हीरो रेंजर साईकिल दिख रहा था। अचानक ही मैंने देखा मेरे पापा तो किसी साईकिल दूकान की बजाय कपडे के दूकान के अन्दर जा रहें हैं, ये वोही कपड़ा का दूकान था जहाँ से कई वर्षों से हमारे घर में उधार में कपडे लिए जा रहे थे, मेरे पापा के कोई जान पहचान वाले का ही दूकान था। मेरे पापा अंदर गए और गल्ले पर बैठे उस अंकल से बोले कि देखो भाई तुम्हारा भतीजा साईकिल लेने की जिद कर रहा है, तुम इसे कोई साईकिल खरीद दो, इसने तो खाना पीना तक छोड़ दिया है। उस अंकल ने हँसते हुए मुझे कहा इसमें कहाँ कोई परेशानी है चलो मेरे साथ बगल में ही तो दूकान है अभी खरीद देता हूँ। इतना कहकर वो आगे की और निकल पड़े और मैं उनके पीछे पीछे चलने लगा।
अंततः मेरे पापा मुझे लेकर साईकिल खरीदने के लिए घर से निकले। हम दोनों पैदल ही जा रहे थे। मेरा रोम रोम नयी साईकिल मिलने की ख़ुशी में हर्षित हो रहा था। मैं येही सोचता जा रहा था कि मैं मोटे चक्के वाला हीरो रेंजर साइकिल ही लूँगा। हीरो रेंजर साइकिल की तमन्ना मेरे मन में विगत 4 वर्षों से थी। अपने साथ के लड़कों को अच्छी साईकिल पर चलते देख मुझे अपनी साइकिल पर बैठने में खराब महसूस होती थी। मैंने कैसे कैसे करके मेट्रिक से इंटर का सफ़र पार किया लेकिन जब graduation में पंहुचा तो में इसे बर्दास्त नहीं कर सका। मुझे अपनी जिद को हकीकत का जमा पहनने के लिए अंततः भूख हड़ताल का ही सहारा लेना पड़ा।
मुझे याद आ रहा था वो लम्हा जब हमारे घर में टीवी नहीं थी, उस वक़्त बुधवार और शुक्रवार को रात 8 बजे चित्रहार DD1 पर प्रदर्शित होता था जिसमे नए नए फ़िल्मी गाने दिखाए जाते थे, उसे देखने के लिए मैं बगल वाले घर के पीछे के जंगले पर किसी तरह कूद कादकर इसे देखता था और रविवार को जब रामायण का समय होता था मैं और मेरे छोटे भाई लाइन लगाकर काफी समय पहले से बगल वाले के घर के दरवाजे के बाहर खड़े रहते थे, बगल वाले अंकल का जब मन करता तब अपना दरवाजा खोलते थे कभी वक़्त पर तो कभी काफी समय के बाद। एक दिन जब उन्होंने रामायण ख़त्म होने के बाद अपना दरवाजा खोला और मुझसे ये कहकर कि चलो जाओ अपने घर रामायण तो ख़त्म हो गया है, मुझे बहुत ही खराब लगा था, उसी दिन मैं घर आया और भूख हड़ताल पर बैठ गया और अपनी माँ से मैंने येही कहा अब तो मैं तभी खाना खाऊँगा जब मेरी घर में अपनी टीवी आएगी। और फिर अंततः मेरे घर में टीवी आ ही गई। ऐसा नहीं था कि टीवी के लिए घर में इससे पहले बात नहीं हुए कई वर्षों से हमलोग अपने पापा से एक टीवी लाने के लिए कह रहे थे मगर पता नहीं क्यूं टीवी घर में नहीं आ रहा था। ऐसा भी नहीं था कि मेरे पापा के औकात नहीं थी या फिर वे बेरोजगार थे। वे तो टिस्को में परमानेंट थे और साथ ही बहुत सारे घर किराए पर दिए हुए थे फिर भी ना जाने क्यूं हम तरसते रहे हर उस छोटी छोटी चीज के लिए जो एक सामान्य घर के लिए बहुत ही जरुरी होती है।
साइकिल के लिए जाते समय रास्ते भर मेरे दिमाग में पुरानी बातें याद आ रही थी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्यूं आखिर क्यूं हमारे साथ ये सब कुछ हो रहा है। क्यूं महज एक साईकिल के लिए भी पापा तैयार नहीं हो रहे थे। मेरे कदम जैसे जैसे आगे बढ़ रहे थे मेरी निगाहों के सामने मेरा वो ही अरमान हीरो रेंजर साईकिल दिख रहा था। अचानक ही मैंने देखा मेरे पापा तो किसी साईकिल दूकान की बजाय कपडे के दूकान के अन्दर जा रहें हैं, ये वोही कपड़ा का दूकान था जहाँ से कई वर्षों से हमारे घर में उधार में कपडे लिए जा रहे थे, मेरे पापा के कोई जान पहचान वाले का ही दूकान था। मेरे पापा अंदर गए और गल्ले पर बैठे उस अंकल से बोले कि देखो भाई तुम्हारा भतीजा साईकिल लेने की जिद कर रहा है, तुम इसे कोई साईकिल खरीद दो, इसने तो खाना पीना तक छोड़ दिया है। उस अंकल ने हँसते हुए मुझे कहा इसमें कहाँ कोई परेशानी है चलो मेरे साथ बगल में ही तो दूकान है अभी खरीद देता हूँ। इतना कहकर वो आगे की और निकल पड़े और मैं उनके पीछे पीछे चलने लगा।
थोड़ी हो दूर पर जाकर वे एक छोटी सी दूकान, जिसके सामने गिनती के महज चार साईकिल लगी हुई थी और वो दूकान कोई रोड पर फूटपाथ पर लगाए जाने वाला दूकान सा लग रहा था, के सामने रूक गए और मुझसे कहा कि देख लो कौन सी साईकिल लेनी है। उस दूकान को देखकर मैं समझ नहीं पा रहा था कि ये क्या हो रहा है, क्यूंकि महज चार साईकिल ही तो दिख रही थी यहाँ, मैंने उन साइकिलों को देखकर कहा कि इसमें से तो मुझे कोई पसंद ही नहीं मुझे तो मोटे चक्के वाला हीरो रेंजर साईकिल चाहिए। मेरी बात सुनकर अंकल ने कहा देखो यदि साईकिल चाहिए तो जो यहाँ दिख रहा है उसमें से कोई एक ले लो। मैं दुविधा में था, मैं तो बीते चार वर्षों से हीरो रेंजर साईकिल के अरमान लिए भटक रहा हूँ और यहाँ तो पुराने मॉडल वाले साईकिल ही हैं और एक साईकिल नयी मॉडल की है भी तो वो पतले चक्के वाली है। मैंने झिझकते हुए ये सोचकर कि यदि ये नहीं मिला तो पापा फिर कभी दुबारा देंगे भी नहीं मैंने अपना मन मारते हुए पतले चक्के वाला साईकिल चुन लिया और फिर थोड़ी देर के बाद वो साईकिल अनमने मन से लेकर घर वापस आ गया।
मेरा हीरो रेंजर साईकिल खरीदने का वो अरमान आज तक अधूरा है। शादी हो गयी, बच्चे हो गए मैं परमानेंट नौकरी कर रहा हूँ मगर मेरा हीरो रेंजर साईकिल का वो खवाब आज तक अधूरा ही है शायाद जीवन भर अधूरा ही रहे? अब तो पिछले साल अपने बेटे के लिए छोटी साईकिल खरीदी मैंने। मेरी सारी हसरत तो दफ़न ही है, अब अपने अरमानों को पूरे करने का समय ही नहीं, पारिवारिक हसरतों को तवज्जो देना ही मेरी पहली प्राथमिकता है। मैं वो सारे सुख अपने परिवार को देना चाहता हूँ जिसके लिए मैं बचपन से लेकर आज तक तरसता रहा।
आज तक में ये नहीं समझ पाया कि आखिर क्यूं हमारे साथ ही ये सब कुछ हुआ, जबकि मेरे पापा तो उस समय परमानेंट नौकरी में थे। हर एक चीज के लिए हम तरसते रहे। पिता का स्नेह क्या होता है ये तो आज तक मैं जान ही नहीं पाया।
मंगलवार, 1 जून 2010
कैसे मैं भूल जाऊं उसे?
कितना आसान है ये कहना कि भूल जाओ। मगर क्या ऐसा मुमकिन है? मैंने अपनी जिन्दगी में ये आजमा कर देखा है? एक तरफा मोहब्बत की तपिस में जल जलकर किसी की निगाहों में अपनी जिन्दगी का सवेरा देखा है। नफरत भरी नज़रों में न जानें क्यूं अपने लिए बेइंतहा प्यार देखा है। किसी को अपनी धडकनों में बसाकर अपनी निगाहों में उसका अख्स बिठाकर फिर उसे भूल पाना भला कैसे संभव हो सकता है? जिसकी याद मेरी सांसों में दोड़ते हुए खून की तरह फ़ैल चुकी हो उसे भला भूल पाना कैसे संभव हो सकता है?
1994 से लेकर आज तक सब कुछ बदल चुका है। यदि नहीं बदला तो सिर्फ मेरा अंतर्मन और मेरी दिल का वो एहसास जो किसी के प्रति समर्पित था। 1994 से 28 नवम्बर, 2000 के बीच जबकि मेरी उससे कोई व्यक्तिगत मुलाकात तक नहीं हुई थी, मेरी आँखे हर दिन उसके दीदार को प्यासी भटकती रहती थी. उसकी एक नज़र पाने भर को मैं बेचैन हो उठता था।
1994 से लेकर आज तक सब कुछ बदल चुका है। यदि नहीं बदला तो सिर्फ मेरा अंतर्मन और मेरी दिल का वो एहसास जो किसी के प्रति समर्पित था। 1994 से 28 नवम्बर, 2000 के बीच जबकि मेरी उससे कोई व्यक्तिगत मुलाकात तक नहीं हुई थी, मेरी आँखे हर दिन उसके दीदार को प्यासी भटकती रहती थी. उसकी एक नज़र पाने भर को मैं बेचैन हो उठता था।
29 नवम्बर, 2000 ने मेरे उन सारे एहसासों को मिटा दिया। मेरी सोच को मुझे बदलने को मजबूर कर दिया। इस दिन में स्वप्न लोक की नगरी से धरातल पर वापस आया और मैंने खुद का सही आंकलन किया। एक तरफ मेरी दम तोडती मोहब्बत थी तो दूसरी तरफ वो जो मेरी मोहब्बत को दोस्ती का रूप देकर मुझसे किनारा काटना चाह रही थी। मैंने अपनी दम तोडती मोहब्बत का साथ दिया और उसकी दोस्ती के पेशकश को सहजता से अस्वीकार कर दिया। ये वही दिन था जब उसने मुझसे कहा था कि "आप शादी कर लीजिये, मुझे भूल जाइये"
30 अप्रैल, 2002 को मेरी शादी हुई और आज 2010 का साल चल रहा है, मेरी शादी को 8 साल से ज्यादा हो गए हैं लेकिन उसे मैं भूला नहीं पाया। शायद पूरी जिन्दगी उसे भुला नहीं पाऊँगा। मेरे अरमान बदल गए, मेरे खयालात बदल गए लेकिन मेरा दिल और उसमें कैद उसकी मोहब्बत कमबख्त आज तक बदलने का नाम ही नहीं ले रही है।
कितना आसान होता है किसी के लिए ये कह देना कि "मुझे भूल जाओ" मगर मैं जनता हूँ कि दिल के करीब लाकर किसी को भूलना संभव ही नहीं।
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कैसे मैं भूल जाऊं उसे
दिए जिसने जख्म
किये जिसने सितम
हरबार दिल पर उठाये हमने ये सितम
जिनसे जुदा होकर आँखे हुई थी नम
कैसे मैं भूल जाऊं उसे
दिए जिसने जख्म
किये जिसने सितम ॥ 1
नहीं कह सकता मगर मैं उसको बेरहम
आज भी है वो क्यूंकि दिल के आईने में हरदम
कैसे मैं भूल जाऊं उसे
दिए जिसने जख्म
किये जिसने सितम ॥ 2
हपल तड़पता रहता हूँ जिसके बिना मैं "सुमन"
उसको भूलने को अब पूरी जिन्दगी भी पड़ेगी कम
कैसे मैं भूल जाऊं उसे
दिए जिसने जख्म
किये जिसने सितम ॥ 3
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