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मेरे पास तो माँ भी नहीं है.

हर दिन रात को जब कमरे में सोने जाता हूँ, लाईट बंद करके जैसे ही बिस्तर पर लेटता हूँ, मेरे जेहन में दीवार फिल्म का वो सीन तरोताजा हो जाता है। ऐसा लगता है जैसे बिलकुल ही मेरी आँखों के सामने वो सीन चल रहा है जब एक भाई दुसरे भाई से कहता है "मेरे पास बंगला है, मोटर है, कार है, ............. तुम्हारे पास क्या है" और दूसरा भाई जवाब देते हुए कहता है "मेरे पास माँ है"। ये सीन, ये संवाद हर रात को मेरे जेहन के आर-पार होता है और मुझे ये सोचने पर विवश कर देता है कि फिल्म और असल जिंदगी के बीच कितने फर्क है. कहाँ इस फिल्म में वो माँ जो बचपन से जिस बेटे से ज्यादा प्यार करती रही महज गलत रास्ते पर चलने के कारन वो उस बेटे के बदले अपने दुसरे बेटे का साथ देना पसंद करती है और उसके साथ उसके घर में रहने लगती है।
मेरे अनुसार आज तक मैं अपने रास्ते पर सही था, सही हूँ और मुझे खुद पर विश्वास है कि आगे भी सही ही रहूंगा। मेरी शादी जो कि 30 अप्रैल, 2002 में हुई, इससे पहले मैं अपने घर का दुलारा बेटा था, अपनी माँ का सबसे प्रिय बेटा था। आज मेरे पास जो कुछ भी है वो सिर्फ मेरी माँ की ही देन हैं। इसका एहसास ना सिर्फ मुझे था बल्कि ऐसा घर के अन्य सदस्यों का भी मानना था। ऐसा कहा जाता है कि मैंने जो भी माँगा वो मुझे दिया गया जबकि एक नयी साईकिल तक के लिए मैं आजीवन तरसता रहा। (मेरे पिछला ब्लॉग पढ़ें।) मैं अपने घर में अपनी माँ का प्रिय था ये मैं जानता था। मगर मेरी शादी ने मेरे जीवन में मानो भूचाल ही ला दी। ऐसा कहा जाता है कि शादी के बाद बेटा बदल जाता है मगर मेरे मामले में तो उल्टा ही हुआ, घर के सभी बदल गए। जो बेटा कल तक घर का लाडला हुआ करता था आज तो वो प्यार के एक शब्द तक के लिए तरस गया। हालात बद से बदतर होते गए, मगर मैं नहीं बदला। छोटे भाई की शादी हुई, छोटे भाई ने आर्मी की नौकरी छोड़ दी। वो घर पर ही रहने लगा। घर में हालात और भी तब बदतर हो गए जब उसने हम सबके सामने ही अपनी पत्नी को बेरहमों की तरह से पीटना शुरू कर दिया। मैंने इसका विरोध किया तो मेरे और मेरी पत्नी के खिलाफ कई बातें घर में होने लगी। उस समय मैं दिन में सुबह 909.15 से शाम 05.45 तक NML जमशेदपुर में अ-अस्थाई रूप से परियोजना सहायक के रूप में तथा रात 8 बजे से रात 01.30 बजे तक उदितवाणी प्रेस में पार्ट टाइम कंप्यूटर ओपरेटर के रूप में काम करता था और किसी तरह से 4 हजार तक की कमाई कर पाता था। उस वक़्त मैं रात के 2 बजे से सुबह के 4 - 4.30 बजे तक जागकर प्रतियोगिता की तैयारी करता था, क्यूंकि मैंने परमानेंट नौकरी के लिए कई फॉर्म भरे थे, जिसका लिखित परीक्षा होना था। उस समय ही मुझे एक बेटा भी हुआ था। हालात ऐसे बेकाबू हो गए थे कि अब मुझे इस घर में रहना किसी जेल से कम महसूस नहीं हो रहा था। ये वर्ष 2006 की बात है। ऐसे में मैंने भाड़े के घर में जाने का निर्णय ले लिया और इस सिलसिले में मैं बागबेरा के एक घर को देखा और भाड़े में लेने के लिए इसके मकानमालिक से मिला भी। वे इस घर के लिए 1800 रुपये प्रति महीने मांग रहे थे। मैंने कुछ दिन बाद उनसे मिलने को कहा और वापस घर आ गया। तभी अचानक मुझे अपने ससुराल से ये सन्देश मिला कि वे लोग अपने गाँव जा रहें हैं उनका घर खाली ना रहे इसलिए वे चाहते हैं कि उनके जमशेदपुर वापस आने तक मैं अपने पत्नी और बेटे के साथ उनके घर में रहूँ। मैंने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और मैं अपनी पत्नी और बेटे के साथ अपने ससुराल में रहने कुछ दिनों के लिए चला गया। इस बीच मैं अपनी पत्नी को बागबेरा का वो घर दिखने ले गया। उस घर को देखकर मेरी पत्नी असंतुष्ट हुई और मुझसे बोली कि इस घर में रहना मुश्किल है, आप कोई दूसरा घर देखें। मैंने अपने करीब के दोस्तों को किसी भाड़े के घर के लिए बोल दिया था और लगभग रोजाना ही मैं NML से छुट्टी होने के बाद कोई ना कोई घर देखने जा ही रहा था कि एक दिन जब NML में ऑफिस के समय में मैंने वो वेबसाइट देखा जिस पर मेरे द्वारा दिए गए परीक्षा का रिजल्ट आने वाला था मगर कई दिनों से नहीं आ रहा था, आज रिजल्ट वेबसाइट पर निकल गया था और मैं CMERI दुर्गापुर के लिए सहायक की लिखित परीक्षा में पास हो गया था और इसका साक्षात्कार अगले महीने 3 अप्रैल, 2006 को कोल्कता में तय किया गया था। NMLसे छुट्टी होने के बाद मैं ख़ुशी ख़ुशी बिस्टुपुर अपने ससुराल पहुंचा और गेट से ही अपनी पत्नी को आवाज लगे, जब मेरी पत्नी सामने आई तो मैंने उसे गले लगाकर कहा "मुबारक हो" उसने मुझे पूछा "क्या बात है, सैलरी बढ़ गयी क्या" मैंने जवाब देते हुए कहा "नहीं रे, अब तुम्हे किसी भाड़े के घर में नहीं रहना, अब तो तुम सरकारी घर में ही रहोगी" इतना कहना था कि मेरी पत्नी के आँखों में आंसू आ गए और उसने रून्ध्ते स्वर में कहा "क्या बात है?" तब जाकर मैंने उसे अपने लिखित परीक्षा में पास होने की जानकारी दी। मुझे अपने ऊपर यकीं था कि मैं किसी तरह का भी साक्षात्कार का सामना आसानी से कर सकता हूँ और हुआ भी यही मेरा साक्षात्कार मेरे अनुसार बहुत बढ़िया रहा। कुछ महीनों के बाद मैंने CMERI दुर्गापुर में परमानेंट नौकरी ज्वाइन कर ली और फिर सीधे बिस्टुपुर ससुराल से अपनी पत्नी और बच्चे तथा अपने घर से अपने सामान को दुर्गापुर शिफ्ट कर लिया। लगभग दो साल मैं वहां रहा और फिर 1 सितम्बर, 2008 को मैं ट्रान्सफर कराकर वापस एक परमानेंट पद पर NML जमशेदपुर आ गया।
इन वर्षों के दौरान मुझे रोजाना ही दीवार फिल्म के इस सीन और इसके डायलाग का सामना करना पड़ा और ये निरंतर जारी है। वर्तमान परिदृश्य में मेरे साथ वो हो रहा है जो उस फिल्म में खलनायक की भूमिका निभा रहे अमिताभ बच्चन के साथ हुआ, जो गलत रास्ते पर चलने के कारन अपनी माँ की ममता से दूर हो गया। आज भी वो डायलाग "मेरे पास माँ है" के अनुभूति मेरे जेहन को जार-जार कर देती है और मुझे ये सोचने पर विवश कर देती है कि आखिर किस गलती की सजा मुझे मिल रही है जो एक खलनायाक की भांति मुझसे पेश आया जा रहा है। मेरा अंतर्मन रोजाना ही चोटिल हो रहा है।
सही रास्ते पर चलने के बावजूद मैं तो आज यही खुद को कहने को विवश हूँ कि "मेरे पास तो माँ भी नहीं है."

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