गमगीन था वो पल मायूस था वो लम्हा
जब उनसे बिछड़ने का झेला था हमने सदमा
अश्क बह ही रहे थे ये सोचकर
कि वो जा रही है
जिनसे है रौशन मेरी ये जिन्दगी
वो ही जा रही है
कुछ पल तक यूँ ही रोते रहे हम
दर्द दिल का खामोश सहते रहे हम
पल भर में वो हमसे छूटने को थे
दिल के खून निगाहों से बहने को थे
तभी किसी ने देकर आवाज़ मुझको संभाला
ये तो वो ही सख्श था जिसने हमें रुलाया
पास खड़ी थी वो खामोश नजरें झुकाए
मैं देखता रहा उसे बिना अपनी पलकें गिराए
याद जो आई फिर मुझे जुदाई की बातें
बेचैन हो गयी फिर मेरे दिल की सांसें
मेरी बेचैनी को देख वो कहने लगी
माना तेरे दिल को ठोकर मैंने ही दी
मगर क्या तू मोहब्बत आज भी करता है मुझसे
कहा मैंने पूछ लो तुम मेरी नजर से
तभी उसने कहा ऐ "सुमन"
कहते हो मुझसे प्यार करते हो तुम
फिर कैसी है ऐ जुदाई और कैसा है ऐ अलाप
मेरे जाने से तू क्यूं होता है उदास
सच्ची है गर तेरी मोहब्बत तो जुदाई कैसी
जो मिल गयी आत्मा तो दीवारें कैसी
करार जो पाना हो दिल का
पलकें बंद कर लेना सुमन
नज़र आउंगी तुझको हर पल
तेरे दामन के साथ हमदम
अपनी नादानी पे हंसकर मैंने उसे WISH करना चाहा
मगर वो तो दूर जा चुकी थी बहुत दूर - बहुत दूर
मगर आज भी जब कभी मैं निगाहें बंद करता हूँ
अपने दिल की हर धड़कन में बस उसे महसूस करता हूँ
कैसी है ऐ मेरी मोहब्बत
मैं किस-किस को बताउं
पागल हो चूका हूँ मगर
पागलपन मैं कैसे छुपाऊं
करीब रहकर इतने जब समझ ना सके
वो मेरे दिल के जज्बात को
क्या ख़ाक समझेगी वो भला
इतने दूर रहकर मेरे हालात को
बस इतनी सी है सदा मेरे इस दिल की
वो फूल बनी रहे मेरे निगाहों के झील की
जब कभी मुझपर तन्हाई का बादल छाए
हर उस पल वो ख्वाब बनकर मेरी नजर में आये
ना कोई तमन्ना है ना कोई अब सपना है
लगता है जैसे मिलकर कोई बिछड़ गया अपना है
सदियों से जिसकी मेरे दिल को तलाश थी
मेरी पहली मोहब्बत की जो पहली एहसास थी
जुदा हो गया उनसे ही आज मैं
जिसके बिना मेरी जिन्दगी बिलकुल निराश थी।
परमार्थ सुमन
19 मई, 1998
लाल बिल्डिंग हाउस
11 PM
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