दिल पूछता है खुद से
आखिर मोहब्बत हुई ही क्यों
एक संगदिल बेरहम से
उसके इंतजार में दिल
अक्सर तड़पता रहता है
हर शख्स में दिल उसकी ही
तस्वीर ढूंढता फिरता है
मेरे अरमानों का मगर
उसपर कुछ भी असर नहीं
दिल पूछता है खुद से
आखिर मोहब्बत हुई ही क्यों
एक संगदिल बेरहम से
बेजुबान दिल अक्सर ही
कराहता रहता है
अपने जख्मी दिल को
खुद ही संभालता फिरता है
मेरे जज़्बातों का मगर
उसे कुछ भी कद्र नहीं
दिल पूछता है खुद से
आखिर मोहब्बत हुई ही क्यों
एक संगदिल बेरहम से
मेरे दिल के मंदिर में
नित नए फूल खिलते रहते हैं
हकीकत मे न सही
ख्वाबों में हम मिलते रहते हैं
मेरी हसरतों का मगर
उसे कोई फिक्र नहीं
दिल पूछता है खुद से
आखिर मोहब्बत हुई ही क्यों
एक संगदिल बेरहम से
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