राज ठाकरे ने मुंबई में जो उथल पुथल मचाया और उसके बाद मुंबई पुलिस के द्वारा राहुल राज के कत्ल के बाद जो स्थिति मुंबई की हुई ये हमने कभी सोचा नहीं था। खुलेआम गुंडागर्दी खुलेआम कत्ल खुलेआम कानून का मजाक उडाना सब कुछ मुंबई ने पिछले दिनों देखा। निहत्थे लोगों पर सिर्फ़ राजनीति की दूकान चलाने के लिए जुल्म करना और आमची मुंबई का नारा बुलंद करना ये कहाँ का इंसाफ है। कभी दक्षिण भारत तो कभी उत्तर भारत के लोगों पर ठाकरे जैसे नेताओं ने जो जुल्म किये उसे हम सबने अपने अपने अंतरात्मा से महसूस किया। सिर्फ़ और सिर्फ़ राजनीति की रोटी सेकने के लिए कभी हिंदू मुस्लिम के बीच दंगे कराए जाते थे तो आज स्थिति इतनी बदल गयी है की क्षेत्रीय राजनीति के नाम पर एक नए आतंकवाद की पटकथा लिख दी है। उस वक्त जब राज ठाकरे के गुंडे क्षेत्रीय राजनीति के नाम पर उत्तर भारत के लोगों पर अत्याचार कर रहे थे, समूचा लोकतंत्र शर्मिंदा हो गया था तब किसीं ने यी नहीं कहा था कि ये ग़लत हो रहा है।
मुंबई, जहाँ अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, लता मंगेशकर से लेकर सचिन तेंदुलकर तक बड़ी से बड़ी हस्तियां रहतीं हैं मगर किसी ने इस मामले में दखल देना मुनासिब नही समझा। क्यो? आख़िर क्यो? क्या हो गया था उन हस्तियों को जो आज आतंकवाद के मसले पर अपने अपने ब्लॉग पर अपनी अपनी दुःख भरी व्यथा लिख रहे हैं और जो दिन प्रतिदिन समाचार पत्रों के प्रथम पृष्ठ कि शोभा बन रहें है। चाहे अमिताभ भाच्चन हों या लता मंगेशकर या फिर धर्मेन्द्र हों सभी खुलकर आतंकवाद के खिलाफ अपनी आवाजें बुलंद कर रहें है, उनसे मेरा एक सवाल है - क्या आतंकवादियों द्वारा किए गए कत्लेआम का ही विरोध करेंगे, पिछले दिनों जो राज ठाकरे और उसके मनसे के गुंडे ने राजनीति के नाम पर आतंकवाद का नया रूप पेश किया उसका विरोध क्योँ नहीं किया गया। यदि वर्तमान कि तरह मुखर होकर उस समय येही प्रतिक्रया की गई होती तो राज ठाकरे जैसे नेता को मजबूरन अपनी राजनीति की दूकान बंद करनी पड़ती।
मुंबई में 200 के लगभग लोग मर गए, वे भी इंसान ही थे, 22 लोगों को छोड़कर बाकी लोग हमारे अपने ही थे, हमारे हिन्दुस्तान के ही थे, मगर ना जाने क्यों इस बार मुझे व्यक्तिगत रूप से ये एहसास ही नही हुआ की मैंने कुछ खोया है, मुझे ऐसा लगा ही नही की मैंने अपने लोगों को खोया है। ना जाने क्यों मेरे जेहन से वो अपनापन गायब हो गया था। मैंने ये महसूस किया की जब राज ठाकरे जैसा नेता मुंबई को अपने बाप की जागीर समझता है और मुंबई में रह रहे सामान्य लोगों से लेकर खास लोगों तक में कोई भी ऐसा नही जो उसके इस जागीर पर ऐतराज करने का दम भरे। शायद येही कारन हैं जिसके कारन मैं सवेदंशुन्य होकर सिर्फ़ न्यूज़ और न्यूज़ देखता रहा कहीं से कोई भावः मेरे अंतरात्मा से नही निकले कहीं से कोई मर्म मुझे एहसास नहीं हुआ मुझे ऐसा लगा जैसे मुंबई किसी दूसरे देश में चली गयी हो, मुंबई से अब हमारे देश का कोई मतलब नही।
1 टिप्पणी:
bahut achcha likha hai yaaar
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